SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध स्थिर-संहनवाला है, वह इस प्रकार का एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं । ५८९. से भिक्खू बा २ बरं अद्धजोबणमेराए पायपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए । ५८९. वह साधु, साध्वी अर्द्धयोजन के उपरान्त पात्र लेने के लिए जाने का मन में विचार न करे । विवेचन इस दोनों सूत्रों में साधु के लिए ग्राह्य पात्र के कितने प्रकार हैं, किस साधु को कितने पात्र रखने चाहिए, एवं पात्र के लिए कितनी दूर तक जा सकता है, ये सब विधि निषेध बता दिये हैं। वृत्तिकार एक पात्र रखने के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करते हैं कि जो 'साधु बलिष्ठ तथा स्थिर संहनन वाला हो, वह एक ही पात्र रखे, दूसरा नहीं, वह जिनकल्पिक या विशिष्ट अभिग्रह धारक आदि हो सकता है।' इनके अतिरिक्त साधु तो मात्रक (भाजन) सहित दूसरा पात्र रख सकता है। संघाड़े के साथ रहने पर वह दो पात्र रखे एक भोजन के लिए, दूसरा पानी के लिए और मात्रक का आचार्यादि के लिये पंचम समिति के हेतु उपयोग करे। निशीथ और बृहत्कल्पसूत्र में भी एक पात्र रखने का विधान है। २ एषणा दोषयुक्त पात्र - ग्रहण - निषेध ५९०. जे भिक्खू बा २ से ज्जं पुण षाखं जाणेज्जा अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई ४ जहा पिंडेषणाए चत्तारि आलाबगा। पंचमो बहवे रे समण - माहण पगणिय २ तहेव । ५९१. से भिक्खू बा २ अस्संजए, भिक्खुपडियाए बहवे समण - माहण वत्थेसणाऽऽलावओ । ५९०. साधु या साध्वी को यदि पात्र के सम्बन्ध में यह ज्ञात हो जाए कि किसी भावुक गृहस्थ ने धन के सम्बन्ध से रहित निर्ग्रन्थ साधु को देने की प्रतिज्ञा (विचार) करके किसी एक साधर्मिक साधु के उद्देश्य से प्राणी भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके पात्र बनवाया है, और वह उसे औद्देशिक, क्रीत, पामित्य, अच्छेद्य, अनिसृष्ट और अभ्याहृत आदि दोषों से युक्त पात्र ला कर देता है, वह अपुरुषान्तरकृत या पुरुषान्तरकृत यावत् आसेवित हो या अनासेवित, उसे १. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३९९ २. (क) जे णिग्गंथे तरुणे बलवं जुवाणे से एगं पायं धारेज्जा, णो बितियं । - निशीथ सूत्र उ १३ पृ. ४४१ (ख) "जे भिक्खू तरुणे जुगवं बलवं से एगं पायं धारेज्जा ।" • बृहत्कल्प सूत्र पृ. ११०९ ३. 'बहवे समण - माहण इत्यादि शब्दों से पिण्डैषणाध्ययन के अन्तर्गत (सूत्र ३३२ / २) छठा आलापक पहले दे दिया है, उसके बाद 'अस्संजए भिक्खूपडियाए'. . इस पाठ से वस्त्रैषणाऽध्ययन के अन्तर्गत ५५६ वाँ सूत्र यहाँ विविक्षित है । वस्त्रैषणा - अध्ययन में भी यही क्रम है, वैसा ही सूत्रपाठ है, किन्तु यहाँ भिन्न क्रम रखा है, यह विचाराधीन है। -
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy