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________________ २०७ तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ५१५-५१९ उन्मार्ग से नहीं जाना चाहिए, और न ही एक मार्ग से दूसरे मार्ग पर संक्रमण करना चाहिए, न तो गहन वन एवं दुर्गम स्थान में प्रवेश करना चाहिए, न ही वृक्ष पर चढ़ना चाहिए, और न ही उसे गहरे और विस्तृत जल में प्रवेश करना चाहिए। वह ऐसे अवसर पर सुरक्षा के लिए किसी बाड की शरण की, सेना की या शस्त्र की आकांक्षा न करे; अपितु शरीर और उपकरणों के प्रति राग-द्वेषरहित होकर काया का व्युत्सर्ग करे, आत्मैकत्वभाव में लीन होजाए और समाधिभाव में स्थिर रहे। तत्पश्चात् वह यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। ५१६. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु-साध्वी जाने कि मार्ग में अनेक दिनों में पार करने योग्य अटवी-मार्ग है। यदि उस अनेक दिनों में पार करने योग्य अटवी-मार्ग के विषय में वह यह जाने कि इस अटवी-मार्ग में अनेक चोर (लुटेरे) इकट्ठे होकर साधु के उपकरण छीनने की दृष्टि से आ जाते हैं, यदि सचमुच उस अटवीमार्ग में वे चोर इकट्ठे होकर आ जाएँ तो साधु उनसे भयभीत होकर उन्मार्ग में न जाए, न एक मार्ग से दूसरे मार्ग पर संक्रमण करे, न गहन वन या किसी दुर्गम स्थान में प्रवेश करे, न वृक्ष पर चढ़े, न गहरे एवं विस्तृत जल में प्रवेश करे। ऐसे विकट अवसर पर सुरक्षा के लिए वह किसी बाड़ की, शरण की, सेना या शस्त्र की आकांक्षा न करे, बल्कि निर्भय, निर्द्वन्द्व और शरीर के प्रति अनासक्त होकर, शरीर और उपकरणों का व्युत्सर्ग करे और एकात्मभाव में लीन एवं राग-द्वेष से रहित होकर समाधि भाव में स्थिर रहे। तत्पश्चात् यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करे। ५१७. ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए साधु के पास यदि मार्ग में चोर (लुटेरे) संगठित होकर आ जाएँ और वे उससे कहें कि 'आयुष्मन् श्रमण! ये वस्त्र, पात्र, कंबल और पादपोंछन आदि लाओ, हमें दे दो, या यहाँ पर रख दो।' इस प्रकार कहने पर साधु उन्हें वे (उपकरण) न दे, और न निकाल कर भूमि पर रखे। अगर वे बलपूर्वक लेने लगें तो उन्हें पुनः लेने के लिए उनकी स्तुति (प्रशंसा).करके हाथ जोड़कर या दीन-वचन कह (गिड़गिड़ा) कर याचना न करे। अर्थात् उन्हें इस प्रकार से वापस देने का न कहे। यदि माँगना हो तो उन्हें धर्म-वचन कहकर-समझा कर माँगे, अथवा मौनभाव धारण करके उपेक्षाभाव से रहे। ५१८. यदि वे चोर अपना कर्त्तव्य (जो करना है) जानकर साधु को गाली-गलौज करें, अपशब्द कहें, मारें-पीटें, हैरान करें, यहाँ तक कि उसका वध करने का प्रयत्न करें, और उसके वस्त्रादि को फाड़ डालें, तोड़फोड़ कर दूर फेंक दें, तो भी वह.साधु ग्राम में जाकर लोगों से उस बात को न कहे, न ही राजा या सरकार के आगे फरियाद करे, न ही किसी गृहस्थ के पास जाकर कहे कि आयुष्मन् गृहस्थ! इन चोरों (लुटेरों) ने हमारे उपकरण छीनने के लिए अथवा करणीय कृत्य जानकर हमें कोसा है, मारा-पीटा है, हमें हैरान किया है, हमारे उपकरणादि नष्ट करके दूर फेंक दिये हैं।' ऐसे कुविचारों को साधु मन में भी न लाए और न वचन से व्यक्त करे। किन्तु निर्भय, निर्द्वन्द्व और अनासक्त होकर आत्म-भाव में लीन होकर शरीर और उपकरणों का व्युत्सर्ग कर दे और राग-द्वेष रहित होकर समाधिभाव में विचरण करे।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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