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________________ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ५१९. यही उस साधु या साध्वी के भिक्षु जीवन की समग्रता - सर्वांगपूर्णता है कि वह सभी अर्थों में सम्यक् प्रवृत्तियुक्त, ज्ञानादिसहित होकर संयम पालन में सदा प्रयत्नशील रहे । ऐसा मैं कहता हूँ । २०८ - विवेचन — विहारचर्या में साधु की निर्भयता और अनासक्ति की कसौटी – पिछले ६ सूत्रों में साधु की साधुता की अग्निपरीक्षा का निर्देश किया गया। । वास्तव में प्राचीनकाल में यातायात के साधन सुलभ न होने से अनुयायी लोगों को साधु के विहार की कुछ भी जानकारी नहीं मिल पाती थी । उस समय के विहार बड़े कष्टप्रद होते थे, रास्ते में हिंस्र पशुओं का और चोर डाकुओं का बड़ा डर रहता था, बड़ी भयानक अटवियाँ होती थीं लंबी-लंबी । रास्ते में कहीं भी पड़ाव करना खतरे से खाली नहीं था । ऐसी विकट परिस्थिति में शास्त्रकार ने साधु वर्ग को उनकी साधुता के अनुरूप निर्भयता, निर्द्वन्द्वता, अनासक्ति और शरीर तथा उपकरणों के व्युत्सर्ग का आदेश दिया है। इन अवसरों पर साधु की निर्भयता और अनासक्ति की पूरी कसौटी हो जाती थी। न कोई सेना उसे रक्षा के लिए अपेक्षित थी, न वह शस्त्रास्त्र, साथी, सुरक्षा के लिए कहीं आश्रय ढूँढता था। चोर उसके वस्त्रादि छीन लेते या उसे मारते-पीटते तो भी न तो चोरों के प्रति प्रतिशोध की भावना रखता था, न उनसे दीनतापूर्वक वापस देने की याचना करता था, और न कहीं उसकी फरियाद करता था । शान्ति से, समाधिपूर्वक उस उपसर्ग को सह लेता था । १ 'गामसंसारियं' आदि पदों का अर्थ- गामसंसारियं— ग्राम में जाकर लोगों में उस बात का प्रचार करना, रायसंसारियं राजा आदि से जाकर उसकी फरियाद करना । २ ॥ तृतीय ईर्ष्या-अध्ययन समाप्त ॥ १. बृहत्कल्पसूत्र के भाष्य तथा निशीथ चूर्णिकार आदि के उल्लेखों से ज्ञान होता है कि उस युग में श्रमणों को इस प्रकार के उपद्रवों का काफी सामना करना पड़ता था। कभी बोटिक चोर ( म्लेच्छ) किसी आचार्य या गच्छ का वध कर डालते, संयतियों का अपहरण कर ले जाते तथा उनकी सामग्री नष्ट कर डालते (निशीथचूर्णि पीठिका २८९ ) । इस प्रकार के प्रसंग उपस्थित होने पर अपने आचार्य की रक्षा के लिए कोई वयोवृद्ध साधु गण का नेता बन जाता और गण का आचार्य सामान्य भिक्षु का वेष धारण कर लेता—(बृहत्कल्प भाष्य १, ३००५- ६ तथा निशीथभाष्य पीठिका ३२१ ) कभी ऐसा भी होता कि आक्रान्तिक चोर चुराये हुए वस्त्र को दिन में ही साधुओं को वापिस कर जाते किन्तु अनाक्रान्तिक चोर रात्रि के समय उपाश्रय के बाहर प्रस्रवणभूमि में डालकर भाग जाते - (बृह० भाष्य १.३०.११) यदि कभी कोई चोर सेनापति उपधि के लोभ के कारण आचार्य की हत्या करने के लिए उद्यत होता तो धनुर्वेद का अभ्यासी कोई साधु अपने भुजाबल से अथवा धर्मोपदेश देकर या मंत्र, विद्या, चूर्ण और निमित्त आदि का प्रयोग कर उसे शान्त करता। - ( वही १.३०.१४) । — जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृष्ठ ३५७ (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३८४ के आधार पर (ख) आचारांग चूर्णि मू. पा. टिप्पण पृ. १८७ २.
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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