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________________ १८६ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध बृहत्कल्पसूत्र वृत्ति में बताया गया है कि मध्य में - कूपकस्थान को छोड़कर बैठना चाहिए। तथा नमस्कार मंत्र का पारायण करके सागारी अनशन का प्रत्याख्यान ग्रहण करके बैठे। 'उक्साहि' आदि पदों के अर्थ - चूर्णिकार इस प्रकार अर्थ करते हैं - उक्साहि - समुद्री हवा के कारण ऊपर की ओर खींचो, वोकसाहि- नीचे की ओर खींचो, वस्तु या भंड के साथ, खिवाही-नौका को रस्सी से बांधो, लंगर डालो।णो परिण्णं परिजाणेज्जाउस (नाविक) की उस प्रतिज्ञा (बात) को न माने, आदर न दे, न ही क्रियान्वित करे। मौन रहे। अलित्तेण-डांड अथवा चप्पू से, पिट्टेण -पृष्ठ भाग से, वलुएण-बल्ली से, वाहेहिनौका को चलाओ। उत्तिर्ग-छिद्र, सूराख। कुविंदेण—मिट्टी के साथ मोदती (गुलवंजणी) पीपल, बड़, आदि की छाल कूट कर बनाए हुए मसाले से। ३ कज्जलावेमाणं- पानी भरती हुयी, (प्लाव्यमानां) डूबती हुयी। अप्पुस्सुए-जिसको जीवित और मरण में हर्ष शोक न हो। अबहिलेसे- कृष्णादि तीन लेश्याएँ बाह्य हैं, अथवा उपकरण में आसक्ति बहिर्लेश्या है, जिसके बहिर्लेश्या न हो, वह अबहिर्लेश्य है। एगत्तिगए णं -एगो मे सासओ अप्पा-यों आत्मैकत्वभाव में लीन, वियोसेज -उपकरण, शरीर आदि का व्युत्सर्ग करे। ४८३. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं जं सव्वढेहिं [ समिए] सहिते सदा जएजासि त्ति बेमि। ४८४. यही (ईर्याविषयक विशुद्धि ही) उस भिक्षु और भिक्षुणी की समग्रता है। जिसके लिए समस्त अर्थों में समित, ज्ञानादि सहित होकर वह सदैव प्रयत्न करता रहे। - ऐसा मैं कहता हूँ। ॥ प्रथम उद्देशक समाप्त॥ १. नावः शिरसि न स्थातव्यं ... मार्गतोपि न स्थातव्यं ...... मध्येऽपि यत्र कूपस्थानं तत्र न स्थातव्यं ...साकारं भक्तं प्रत्याख्याय नमस्कारपरिस्तिष्ठति। -बृहत्कल्प सूत्र वृत्ति पृ. १४९८ २. 'उत्तिंगेण आवसति'-आदि पदों का भावार्थ चूर्णिकार ने यों दिया है-"उत्तिंगेणं आसवति, उवरि गंड्से गेण्हति, कजलति त्ति पाणितेणं भरिज्जति"- अर्थात् छिद्र से पानी आ रहा है, ऊपर मुंह में उसे ग्रहण करता है, लेता है। कज्जलति -पानी से नौका भर रही है, या डूब रही है। -आचारांग चूर्णि मूल पाठ टिप्पण पृ. १७७ ३. निशीथचूर्णि में कुविंद आदि पदों के अर्थ - मोदती, बड़, पीपल।"आसत्थमादियाण वक्को मट्टियाए सह कुट्टिजति सो कुविंदो भणति।" गुलवंजणी, बड़, पीपल, अश्वत्थ आदि की छाल को मिट्टी के साथ कूटा जाता है, उसको ही कुविन्द कहते हैं। "फिह-अवल्लाणं तणुयतरं दीहं, अलित्त - गित्ती अलितं । आसोत्थो पिप्पलो तस्स पत्तस्स रुंदो फिहो भवति।"- फिह और अवल के पतले, लम्बे अलिप्ताकारसा लगता है, वह अलित्तक है। अश्वत्थ, पीपल और उनके पत्तों को कूटकर पिण्ड बनाया जाता है, उसे फिह कहते हैं। अथवा कपड़े के साथ मिट्टी कूटी जाती है, उसे चेल-मट्टिया कहते हैं । इत्यादि मसालों से नौका के सूराख को बंद किया जाता है। - निशीथ चूर्णि उ० १८
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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