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तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ४८२
.. एगाभोयं भंडगं करेजा का भावार्थ है - पात्रों को इकट्ठे बाँध कर उन पर उपधि को अच्छी तरह जमा देता है। इस प्रकार सब उपकरणों को इकट्ठा कर ले।
निशीथचूर्णि में इस प्रकार उपकरणों को एकत्रित करके बाँधने का कारण बताया है कि 'कदाचित् कोई द्वेषी या विरोधी नौकारूढ़ साधु को जल में फेंक दे तो वह मगरमच्छ के भय से एकत्रित किए हुए पात्रों पर चढ़ सकता है, पात्र एकत्रित होंगे तो उनको छाती से बाँधकर वह तैर भी सकता है। नौका विनष्ट हो जाने पर भी साधु एकत्रित किए हुए पात्रादि से पानी पर तैर सकता
__ 'णो णावातो पुरतो दुरुहेजा' आदि पदों की व्याख्या- नौका के अग्रभाग में नहीं चढ़ना (बैठना) चाहिए, अग्रभाग में नौका का सिर है, वहाँ नहीं बैठना चाहिए - क्योंकि वह देवता का स्थान माना जाता है, तथा निर्यामकों के द्वारा उपद्रव की भी सम्भावना है, वहाँ बैठने से, एवं नौकारोहियों के आगे बैठने से प्रवृत्ति का झगड़ा बढ़ने की सम्भावना है। नौका के पृष्ठ भाग में भी नहीं बैठना चाहिए, वहाँ तेजी से बहते हुए जल को देखकर गिर पड़ने का भय रहता है। पृष्ठ भाग में निर्यामक- तोरण का स्थान माना जाता है। और मध्य में भी बैठने का निषेध है, क्योंकि वहाँ कूपकस्थान माना जाता है। वहाँ आने-जाने का मार्ग रहता है। २ १. (क) बृहकल्प सूत्र वृत्ति पृ० १४९८ (ख) 'एगाभोगो उवही कज्जो, किं कारणं? कयाइ पडिणीएहिं उदगे छुब्भेज, तत्थ मगरभया एगाभोगकएसु
पादेसु आरुभइ, एगाभोगकएसु वा बुज्झइ, तरतीत्यर्थः। नावाए वा विणहाए एगाओगकते दगं तरतीत्यर्थ:-भायणे य एगाभोगे बंधित्ता तेसिं उवरि उवहिं सुनियमितं करेइ, भायणमुवहि च एगट्ठा करोतीत्यर्थः।'
- निशीथ चूर्णि उद्दे० १२ पृ० ३७४ (ग) आचारांग चूर्णि में इसकी व्याख्या यों की गई है-"एगायतं भंडगं, तिन्नि हेद्वामुहे भातरो करेति,
उवरि भडंगए पडिग्गहं एगं जुयगं करेति-"एकत्रित भंडोपकरण को एकायत कहते हैं। तीन
भाजन अधोमुख रखे, ऊपर भंडक, उस पर एक पात्र, उसके साथ एकजुट करे। २. णो णावातो पुरतो --- आदि पदों की व्याख्या निशीथचूर्णि में इस प्रकार की गई है - "ठाणतियं
मोत्तुण ठाति तत्थऽणाबाहे .....॥ १९९ ॥ देवताहाणं कूयट्ठाणं निजामगट्ठाणं । अहवा पुरतो माझे पिट्ठओ, पुरओ देवयट्ठाणं, माझे सिंवट्ठाणं, पच्छा तोरणट्ठाणं, एते वजिय, तत्थ णावाए अणाबाहे ट्ठाणे टायति । उवउत्तो त्ति णमोकारपरायणो सागारपच्चक्खाणं य हाति।"- अर्थात् नौकारोहण की विधि बताते हुए कहते हैं कि तीन स्थान छोड़कर अनाबाध स्थान में बैठना चाहिए। तीन स्थान ये हैं- १. देवतास्थान, २. कूपकस्थान
और ३. निर्यामकस्थान । अर्थात् सबसे आगे- सिर पर देवता-स्थान है वहाँ नहीं बैठना चाहिए। मध्य में कूपकस्थान है, वहाँ आने-जाने का मार्ग रहता है, वहाँ भी न ही ठहरना चाहिए। और सबसे अन्त में (पीछे) तोरणस्थान है, वहां निर्यामक बैठता है। इन तीनों स्थानों को छोड़कर मध्य में किसी स्थान पर
- निराबाध रूप से बैठे। उपर्युक्त का अर्थ है- नमस्कार मंत्रपरायण होकर सागारी अनशन का प्रत्याख्यान करके बैठना।
-निशीथ चूर्णि पृ०७३-७४ तथा उ०१२ पृ० ३७३