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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
वह युवराज कहलाता है। दोरजाणि - जहाँ एक राज्य के अभिलाषी दो दावेदार हैं, दोनों कटिबद्ध होकर लड़ते हैं, वह द्विराज्य कहलाता है, वेरज्जाणि- शत्रु राजा ने आकर जिस राज्य को हड़प लिया है, वह वैर - राज्य है । विरुद्धरज्जाणि- जहाँ का राजा धर्म और साधुओं आदि के प्रति विरोधी है, उसका राज्य विरुद्ध राज्य कहलाता है, अथवा जिस राज्य में साधु भ्रान्ति से विरुद्ध (विपरीत) गमन कर रहा है वह भी विरुद्ध राज्य है । १ विहं- कई दिनों में पार हो सके, ऐसा अटवीमार्ग । २
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नौकारोहण - विधि
४७४. से भिक्खु वा २ गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अंतरा से णावासंतारिमे उदए सिया, से ज्जं पुण णावं जाणेज्जा - असंजते भिक्खुपडियाए किणेज्ज वा, पामिच्चेज्ज वा, णावाए वा णावपरिणामं कट्टु, थलातो वा णावं जलंसि ओगाहेज्जा, जलातो वा णावं थलंसि उक्कसेज्जा पुणं वा णावं उस्सिचेज्जा, सण्णं वा णावं उप्पीलावेज्जा, तहप्पगारं णावं उड्डगामिणिं वा अहेगामिणिं वा तिरियगामिणिं वा परं जोयणमेराए अद्धजोयणमेराए वा अप्पतरे वा भुज्जतरे
१ (क) "अणरायं' – राया मतो, जुगरायं— जुगराया अत्थि कता वा दावं अभिसिंचति । दोरजं—दो दाइता भंडंति, वैरज्ज - जत्थ वेरं अण्णेण रज्जेण राएण वा सद्धिं । विरूद्ध गमणं यस्मिन् राज्ये साधुस्स तं विरुद्धरज्जं । - आचारांग चूर्णि
(ख) "मए रायाणे जाव मूलराया जुवराया य दो वि एए अणिभिसित्ता ताव अणरायं भवति । "
• निशीथ चूर्णि उ०१२ में अन्य भी इस प्रकार के अर्थ मिलते हैं।
(ग) वृहत्कल्प भाष्य १ २७६४-६५ में वैराज्य - प्रकरण विस्तारपूर्वक बताया गया है।
(घ) उत्तराध्ययन २, टीका पत्र ४७ में बताया गया है- एकलविहारी श्रावस्ती के राजकुमार भद्र को राज्य में गुप्तचर समझकर पकड़ लिया था । उसे अनार्यों से बंधवाकर शरीर में तीक्ष्ण दर्भों का प्रवेश कर असह्य वेदना पहुँचाई ।
- 'विह' शब्द देखें।
२. 'पाइअ - सद्द - महण्णवो' पृ०८०८ ३. "किणेज्ज वा " आदि पदों का अर्थ चूर्णिकार ने इस प्रकार किया है- किणेज- केति (खरीदता है, ) सड्डो - श्रद्धी (श्रद्धालु या श्राद्ध - श्रावक ) दुक्खं दिणे दिणे मग्गिज्जति णावा- कठिनता से दिन-दिन के लिए नाव माँगता है । 'पामिच्चं' – उच्छिदति, उधार लेता है। 'परिणामो णावं परियट्टेति, इमा साहूण जगत्ति वड्डिया खुड्डिया वा सुंदरीति कट्टु' – नौका की अदला-बदली करता है, यह साधु के लिए योग्य है, बढ़िया है, छोटी-सी सुन्दर नौका है, यह सोचकर बदल लेता है। पुण्ण-जल से परिपूर्ण (भरितिया), सण- खुत्तिया चिक्खल्ले कीचड़ में फंसी हुई, उड्डगामिणी व त्ति अणुसोय - ऊर्ध्वगामिनी अनुस्रोतगामिनी, तिरिच्छं— तिरियगामिणी— तिरछी चलने वाली । अद्धजोयणा दूरतरं वा ण गच्छिज्जा अप्पतरो अद्धजोयण आरेण, भुज्जयरो जोयणा परेणं- अर्ध योजन से दूर नहीं जाने वाली नौका अप्पतरा (अल्पतरा) है, जो केवल इस पार से उस पार तक जाती है, भुज्जतर- वह है, जो योजन से पार जाती है | अहवा एक्कसि अप्पतरो, बहुसो भुज्जयरो - अथवा एक बार जो उपयोग में ली जाती है, वह अल्पतरा है, जो बारम्बार उपयोग में ली जाती है, वह भूयस्तरा है।
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