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________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र ४६९-४७३ १७९ यतना चार प्रकार की होती है-(१) जीव-जन्तुओं को देखकर चलना, द्रव्य-यतना है, (२) युग मात्र भूमि को देखकर चलना, क्षेत्र-यतना है। (३) अमुक काल में (वर्षा काल को छोड़कर) चलना, काल-यतना है और (४) संयम और साधना के भाव से उपयोगपूर्वक चलना भाव-यतना है। युग का अर्थ गाड़ी का जुआ होता है, जो आगे से संकड़ा व पीछे से चौड़ा लगभग साढ़े तीन हाथ का होता है। ईर्या-समितिपूर्वक चलने पर दृष्टि का आकार भी लगभग इसी प्रकार का बनता है, शरीर भी अपने हाथ से लगभग इतना ही होता है, इसलिए चूर्णिकार जिनदासमहत्तर ने युग का अर्थ शरीर भी किया है। २ 'उद्धट्ट' आदि पदों के अर्थ-'उद्धट्ट' – पैर को उठाकर, पैर के अगले तल से पैर के रखने के प्रदेश को लाँघकर। साहट्ट-सिकोड़कर, पैरों को शरीर की ओर खींचकर या आगे के भाग को उठाकर एड़ी से चले वितिरिच्छं कट्ट - पैर को तिरछा करके चले। जीव जन्तु को देखकर उसे लाँघकर चले, या दूसरा मार्ग हो तो उसी मार्ग से जाए, सीधे मार्ग से नहीं। दसुगायतणाणि दस्युओं- लुटेरों, या डाकुओं के स्थान, पच्चंतिकाणि-प्रत्यन्त सीमान्तवर्ती। मिलक्खूणि-बर्बर, शबर, पुलिन्द आदि म्लेच्छप्रधान स्थान, दुस्सण्णप्पाणि- जिन्हें कठिनता से आर्यआचार समझाया जा सके, ऐसे लोगों के स्थान, दुप्पण्णवणिजाणि-दुःख से धर्मबोध दिया जा सके और अनार्य-आचार छुड़ाया जा सके, ऐसे लोगों के स्थान, अकालपडिबोहीणि-कुसमय में जागने वाले लोगों के स्थान। 'लाढे' शब्द की व्याख्या - शीलांकाचार्य ने इस प्रकार की है- "येन, केनचित् प्रासुकाहारोप करणाणि- गतेन विधिनाऽऽत्मानं यापयति तालयतीति लाढाः।" अर्थात्जिस किसी प्रकार से प्रासुक आहार, उपकरण आदि की विधि से जो अपना जीवन-यापन करता है, आत्मरक्षा करता है, वह लाढ है । यहाँ पर लाढ' विहार योग्य आर्यदेश का विशेषण प्रतीत होता है।४ अरायाणि पदों की व्याख्या चूर्णिकार के अनुसार इस प्रकार है-अरायाणि-जहाँ का राजा मर गया है, कोई राजा नहीं है। जुवरायाणि-जब तक राज्याभिषेक न किया जाए, तब तक १. आचारांग मूल वृत्ति पत्रांक ३७७ के आधार पर २. (क) उत्तराध्ययन सूत्र अ. २४ गा.६,७ वृहद्वृत्ति (ख) तावमेत्तं पुरओ अंतो संकुडाए बाहि वित्थडाए सगडुद्धि संठिताए दिट्ठीए" –दशवैकालिक जिन० चूर्णि पृ० १६८- अ. ५/१/३/ (क) उद्धट्ट त्ति उक्खिवित्तु अतिक्कमित्तु वा, साहट्ट परिसाहरित निवर्तयतीत्यर्थः।: वितिरिच्छं—पस्सेणं अतिक्कमति सति विद्यमाने अन्यत्र गच्छेत् ण उज्जुगं।-आचारांग चूर्णि मूलपाठ टिप्पण पृष्ठ १७२ (क) सूत्रकृतांग, शीलांक वृत्ति १०/१/३ (ख) निशीथ सूत्र उद्दे० १६
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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