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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
तो विहार के योग्य अन्य मार्ग होते, उस अनेक दिनों में पार किये जा सकने वाले भयंकर अटवी-मार्ग से विहार करके जाने का विचार न करे। केवली भगवान् कहते हैं - ऐसा करना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि मार्ग में वर्षा हो जाने से द्वीन्द्रिय आदि जीवों की उत्पत्ति हो जाने पर, मार्ग में काई लीलन-फूलन, बीज, हरियाली, सचित्त पानी और अविध्वस्त मिट्टी आदि के होने से संयम की विराधना होनी संभव है। इसीलिए भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरादि ने पहले से इस प्रतिज्ञा हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि साधु अन्य साफ और एकाध दिन में ही पार किया जा सके ऐसे मार्ग के रहते इस प्रकार के अनेक दिनों में पार किये जा सकने वाले भयंकर अटवी-मार्ग से विहार करके जाने का संकल्प न करे। अतः साधु को परिचित और साफ मार्ग से ही यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए।
विवेचन-ग्रामानग्राम-विहार : विधि : खतरे और सावधानी- वर्षावास के सिवाय शेषकाल में साधु साध्वियों के लिए ग्रामानुग्राम विहार करने की भगवदाज्ञा है। सूत्र ४६५ से ग्रामानुग्राम विहार करने की यह भगवदाज्ञा प्रत्येक सूत्र में दोहराई गई है, साथ ही खतरे बता कर उनसे सावधान रहने का भी निर्देश है, परन्तु ग्रामानुग्रामविहार में आने वाले खतरों से डर कर या परीषहों एवं उपसर्गों से घबरा कर साधुवर्ग निराश-खिन्न और उदास होकर एक ही स्थान में जम न जाए, स्थिरवास न कर ले, इस दृष्टि से बार-बार ग्रामानुग्राम-विचरण करने के लिए प्रेरित किया है। हाँ, अविधिपूर्वक विहार करने से या जानबूझ कर सूत्रोक्त खतरों में पड़ने से साधु की संयम-विराधना एवं आत्म-विराधना होने की संभावना है।
विहार की सामान्य विधि यह है कि साधु-साध्वी अपने शरीर के सामने की लगभग चार हाथ (गाड़ी के जुए के बराबर) भूमि को देखते हुए (दिन में ही) चलें । जहाँ तक हो सके वह ऐसे मार्ग से गमन करे, जो साफ, सम और जीव-जन्तुओं, कीचड़, हरियाली, पानी आदि से रहित हो। इतना होने पर भी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पाँच प्रकार के विघ्नों खतरों से बचने के उपाय शास्त्रकार ने व्यक्त किये हैं
(१) त्रस जीवों से मार्ग भरा हो, (२) त्रस प्राणी, बीज, हरित, उदक और सचित्त मिट्टी आदि मार्ग में हो, (३) अनेक देशों के सीमावर्ती दस्युओं, म्लेच्छों, अनार्यों, दुर्बोध्य एवं अधार्मिक लोगों के स्थान उस मार्ग में पड़ते हों, (४) अराजक, दुःशासक या विरोधी शासक वाले देश आदि मार्ग में पड़ते हों, (५) अनेक दिनों में पार किया जा सके, ऐसा लंबा भंयकर अटवी-मार्ग रास्ते में पड़ता हो।
प्रथम दो प्रकार के मार्ग में, विघ्नों के अनायास आ पड़ने पर उन पर यतनापूर्वक चलने की विधि भी बताई है। अन्त के तीन खतरों वाले मार्गों को छोड़कर दूसरे सरल, साफ, खतरों से रहित मार्ग से विहार करने का निर्देश किया है।