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________________ तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ४६९-४७३ तो प्राक-भोजी साधु उन म्लेच्छादि के स्थान में विहार करने की दृष्टि से जाने का मन में संकल्प न करे । १७७ केवली भगवान् कहते हैं - वहाँ जाना कर्मबन्ध का कारण है, क्योंकि वे म्लेच्छ अज्ञानी लोग साधु को देखकर यह चोर है, यह गुप्तचर है, यह हमारे शत्रु के गाँव से आया है', यों कह कर वे उस भिक्षु को गाली-गलौज करेंगे, कोसेंगे, रस्सों से बाँधेंगे, कोठरी में बंद कर देंगे, डंडों से पीटेंगे, अंगभंग करेंगे, हैरान करेंगे, यहाँ तक कि प्राणों से रहित भी कर सकते हैं, इसके अतिरिक्त वे दुष्ट उसके वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-पोंछन आदि उपकरणों को तोड़-फोड़ डालेंगे, अपहरण कर लेंगे या उन्हें कहीं दूर फेंक देंगे, (क्योंकि ऐसे स्थानों में यह सब सम्भव है ।) इसीलिए तीर्थंकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा भिक्षुओं के लिए पहले से ही निर्दिष्ट यह प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश है कि भिक्षु उन सीमा- प्रदेशवर्ती दस्युस्थानों तथा म्लेच्छ, अनार्य, दुर्बोध्य आदि लोगों के स्थानों में, अन्य आर्य जनपदों तथा आर्य ग्रामों के होते हुए विहार की दृष्टि से जाने का संकल्प भी न करे । अतः इन स्थानों को छोड़ कर संयमी साधु यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे । ४७२. साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए मार्ग में यह जाने कि ये अराजक (राजा से रहित) प्रदेश हैं, या यहाँ केवल युवराज का शासन है, जो कि अभी राजा नहीं बना है, अथवा दो राजाओं का शासन है, या परस्पर शत्रु दो राजाओं का राज्याधिकार है, या धर्मादिविरोधी राजा का शासन है, ऐसी स्थिति में विहार के योग्य अन्य आर्य जनपदों के होते, इस प्रकार के अराजक आदि प्रदेशों में विहार करने की दृष्टि से गमन करने का विचार न करे । केवली भगवान् ने कहा है-ऐसे अराजक आदि प्रदेशों में जाना कर्मबन्ध का कारण है । क्योंकि वे अज्ञानीजन साधु के प्रति शंका कर सकते हैं कि "यह चोर है, यह गुप्तचर हैं, यह हमारे शत्रु राजा के देश से आया है" तथा इस प्रकार की कुशंका से ग्रस्त होकर वे साधु को अपशब्द कह सकते हैं, मार-पीट सकते हैं, उसे हैरान कर सकते हैं, यहाँ तक कि उसे जान से भी मार सकते हैं। इसके अतिरिक्त उसके वस्त्र, पात्र, कंबल, पाद- प्रोंछन आदि उपकरणों को तोड़फोड़ सकते हैं, लूट सकते हैं और दूर फैंक सकते हैं । इन सब आपत्तियों की संभावना से तीर्थंकर आदि आप्त पुरुषों द्वारा साधुओं के लिए पहले से ही यह प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश निर्दिष्ट हैं कि साधु इस प्रकार के अराजक आदि प्रदेशों में विहार की दृष्टि से जाने का संकल्प न करे।" अतः साधु को इन अराजक आदि प्रदेशों को छोड़कर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए । ४७३. ग्रामानुग्राम विहार करते हुए साधु या साध्वी यह जाने कि आगे लम्बा, अटवी-मार्ग है । यदि उस अटवी— मार्ग के विषय में वह यह जाने कि यह एक दिन में, दो दिन में, तीन दिनों में, चार दिनों में या पांच दिनों में पार किया जाता सकता है अथवा पार नहीं किया जा सकता है,
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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