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________________ द्वित्तीय अध्ययन तृतीय उद्देशक सूत्र ४५६ विवेचना संस्तारक ग्रहण का निषेध-विधान, इस एक ही सूत्रा के पाँच विभाग करके शास्त्रकार ने स्पष्ट रूप में समझा दिया है कि जो संस्तारक जीव जन्तु आदि से युक्त हो। भारी, होमपानिहारिक हो और ठीक से बंधा हुआला हो, उसे ग्रहण न करे, इसके विपरीत जोजीव जन्तु आदि से रहित हो, हलका हो, प्रातिहारिक हो और ठीक से बंधा हुआ हो, उसे ग्रहण करे। वृत्तिकार, अण्डे ,आदि से युक संस्तारक के ग्रहण के निषेध करने के कारण बताते हैं कि जीव-जन्त युक्त संस्तारक ग्रहण करने से संयम-विराधना दोष होगा, भारी भरकम संस्तारक ग्रहण से आत्म-विराधनादि दोष होंगे, अपातिहारिक के ग्रहण से उसके परित्याग आदि दोष होंगे सीक से बंधा हुआ नहीं होगा तो उठाते-रखते ही वह टूट या बिखर जायगा, उसको संभालना या उसका ठीक से प्रतिलेखन करना भी सम्भव न होगा। अत: बन्धनादि पलिमन्थ दोष होंगे। लहुयं के दो अर्थ फलित होते हैं - वजन में हलका और आकार में छोटा। संथारग का संस्कृत रूप संस्तारक होता है। संस्तारक से तात्पर्य उन सभी उपकरणों से है, जो साधु के सोने, बैठने, लेटने आदि के काम में आते हैं। प्राकृत शब्दकोष में संस्तारक के ये अर्थ मिलते हैं शय्या, बिछौना 'दर्भ, घाँस, कुश, पराल आदि का ), पाट, चौकी, फलक, अपवरक, कैमरा या पत्थर की शिला या ईंट चूने से बनी हुई शया, साधु का वासका। संस्तारक एषणा की चार प्रतिमा ४५६. इच्चेताई आयतणाई ३ उवातिकम्म अह भिक्खू जाणेजा इमाहिं चउहिं पडिमाहिं संथारगं एसित्तए१. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३७१..., (ख) संस्तारक-विवेक की पंचसूत्री का निष्कर्ष चूंर्णिकार ने इस प्रकार दिया है -"पढम सअंडं संथारगं ण गेण्हेजा, बित्तियं अप्पडं गरुयंत पिण मेण्हति, ततिय अप्पड लयं अपाडिहारियं न गिण्हति, चनत्थं आप्पंडं लहुयं पाडिहारियं शो अहाबद्धं शगेण्हेज्जा, पंचमं अपंडं लहरां पाडिहारियं अहाबद्धं पडिगाहिज।" - अर्थात् [१] पहला सअण्ड [जीव जन्तु-सहित] संस्तारक ग्रहण न करे। [२] द्वितीय संस्तारक अण्डे रहित है, किन्तु भारी है, उसे भी ग्रहण न करें। [३] तीसरा संस्तारक अंडे से रहित हैं, हलका है, किन्तु अप्रतिहारिक है, उसे भी ग्रहण करे।।४] चौथा संस्तारक अंडे से रहित, हलका और प्रातिहारिक भी है लेकिन ठीक से बंधा नहीं है, तो भी ग्रहण न करे। [५] पाँचवा संस्तारक अण्डों आदि से.रहित, वजन HAR itary में हलका, प्रातिहारिक और सुदृढ़ रूप से बंधा हुआ है, अत: उसे ग्रहण करे। २. पाइअ-सद्द महण्णवो पृ०८४१ आयताई के पाठान्तर हैं आययणाई, आतताई। चूर्णिकार आययणाई पाठ स्वीकार करके व्याख्या करते हैं - आयतणाणि वीं संसारस्स अप्पसत्थाई पस्साई, मोक्खस्स । अर्थात् संसार के आयतेन अप्रशस्त और मोक्ष के आयतन प्रशस्त होते हा
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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