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________________ १५८५ आचारंग सूत्रात द्वितीय श्रुतस्कन्ध 'आइण्णं संलेक्खं' का तात्पर्य चूर्णिकार के अनुसार यी है. आइण्ण का अर्थ है । सागारिक गृहस्थ (स्त्री-पुरुषों आदि से व्याप्त सलेक्ख'को अर्थ है ! चि कम से युक्त उपाश्रय। संस्तारक ग्रहणाग्रहण विवेक ४५६.[११] से भिक्खू वा २ अभिकखेजा संथरिंग एसित्तए। स ज पुणे संथारंग जाणेमा सोष्टिं जाव संताणगं, तहप्पगार संथारंग लाभ सतेणी पडिगोहेजो। म 1. HTETTRI संभक्खू घा' से ज पुण संथारंग जाणेजा अपंडं जाव संताणगे गरुयं, सहप्पगार संथारंग लाभे सते णी पडिगाहेजा। [३] से भिक्खू वा २ से ज पुर्ण संथारंग जाणजी अप्पेर्ड जीव संताणर्ग लहुर्य अप्पडिहारिय तहप्पंगारे संथारंग लाभे सर्तणी पडिगाहेजा। [४] से भिक्खू वा २ से जं पुर्ण संथारंग जाणेजा अपडं जीव संताणगे लहुयं पडिहारिवं, शो अहाबद्धा तहप्पगारं लाभे संते णों षडिगाहेजा। ----[५] से भिक्खू खा २ से जन पुणासंथारपांग्राकोमा अप्पंडं जाव संताणागलहुयं, पडिहारियां अहाबद्धं, तहप्पगारं संथारगंजाव लाभे संते पङिगाहेजो। ४५५.११) कोई साधु या साध्वी संस्तारक की गवेषणां करना चाहे और वह जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों से यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तो ऐसे सस्तारक को मिलने पर भी ग्रहण न करे। DELIEFENEFTAREENSE; VERS E 145 SEE SITE ....Tantot ह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जानें कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के ज न्तु भारी है तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। । (३) वह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका भी है, किन्तु अप्रातिहारिक (दाता जिसे वापस लेना न चाहे) है, तो ऐसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करे। (४) वह साधु या साध्वी, जिस संस्तारक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका भी है, प्रातिहारिक ('दाता जिसे वापस लेना स्वीकार करें) भी है, किन्तु ठीक से बंधा हुआ नहीं है, तो ऐसे संस्तारक को भी मिलने पर ग्रहण न करें। (५) वह साधु या साध्वी, संस्तारैक को जाने कि वह अण्डों यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, हलका है, प्रातिहारिक है और सुदृढ़ बंधा हुआ भी है, तो ऐसे संस्तारक को मिलने पर ग्रहण करे। -- 2..र तारा माल , १. (क) आदिण्णो णाम सौगोरियमादिणा, सलेक्खों सचित्तधम्म। veste गारियमादिणा, सलक्खा साचत्तधम्म। - आचा. चूणि. मूलपाठ पृ. १६४ (ख) तुलना करें -(विहार में) स्त्री, पुरुष के चित्र नहीं बनवाना चाहिए। जो बनवाएं उसे दुक्कट्ट का दोष हो। - विनयपिटक चुल्लवग्ग, पृ. ४५५ (राहुल सां.) लो . रर तारा
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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