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fare अध्ययन तृतीय उद्देशक सूत्र ४४७-४५४
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कम्मकरीओवा अण्णमण्णस्स गोयं सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेंति वापधोवेति वा सिंचति वा सिणावेति वा णो पण्णस्स जव * णों ठाणं वा २ येतेज्जा ।
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४५३. इह खलु गाहावती वा जवि कम्मकरीओ वा णिगिणी ठिता णिगिजा उवल्लीणा मेहुणधम्मं विण्णवति रहस्सिव वा मर्त मतेति णो पण्णस्स जाव * णों ठाणं वा ३ चेतेजा। ४५४. से भिक्खू वा २ से ज्जं पुण उवस्सर्य जाणिज्जा आइण्णं सलेक्ख, णो पण्णस्स जाव * * णो ठाणं वा ३ तेजा क ४४७ए वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने, जो गृहस्थों से संसक्त हो, अग्नि से युक्त हो, साचत जल से युक्त हों, तो उसमें प्राज्ञ साधु-साध्वी को निर्गमन-प्रवेश करना उचित नहीं है और न ही ऐसा उपाश्रय वाचना, (पृच्छा, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोग --) चिन्तन के लिए उपयुक्त है। ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, (शयन-आसन तथा स्वाध्याय) आदि कार्य न करे। " ४४८. वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय जिसमें निवास के लिए गृहस्थ के का जाने घर में से होकर जाना पड़ता हो, अथवा जो उपाश्रय गृहस्थ के घर से प्रतिबद्ध (सटा हुआ, निकट) है, वहाँ प्राज्ञ साधु का आना-जाना उचित नहीं है, और न ही ऐसा उपाश्रय वाचनादि स्वाध्याय के लिए उपयुक्त है। ऐसे उपाश्रय में
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उपाश्रय में साधु स्थानादि कार्य न करे ।
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के ह यदि, साधु या साध्वी ऐसे उपाश्रय को जाने कि इस उपाश्रय बस्ती में गृह स्वामी, उसकी पत्नी, पुत्र-पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, दास-दासियाँ आदि परस्पर एक दूसरे को कोसती हैं झिड़कती हैं, मारती पीती यावत उपद्रव करती हैं, प्रज्ञावान् साधु को इस प्रकार के उपाश्रय में न तो निर्गमन प्रवेश ही करता योग्य है, और न ही वाचनादि स्वाध्याय करता उचित है। यह जानकर साधु इस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे के खि
४५०. साधु या साध्वी अगर ऐसे उपाश्रय को जाले, कि इस उपाश्रय - बस्ती में गृहस्थ, उसकी पत्नी पुत्री यावत नौकरानियाँ एक दूसरे के शरीर पर तेल, घी, नवनीत या वसा से मर्दन करती हैं या चुपड़ती (लगाती हैं, तो प्राज्ञ साधु का वहाँ जाना-आना ठीक नहीं हैं और न ही वहाँ वाचनादि स्वाध्याय करना उचित है। साधु इस प्रकार के उपाश्रय में स्थानादि कार्य न करे ।
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१. पधोवंति के स्थान पर पाठान्तर हैं. पहोपंति, पहोअंति। अर्थ वही है। इससे निखर्मण "धमा मुगचिंताएं', 'तक का समग्र पाठ सूत्र ३४८ वत् ।
(४)
२. इसके स्थान पर पाठान्तर हैं। - आइण्ण संलेक्खे, आइन्न संलेक्खं, आतेण्ण सलेक्ख, आइण्णसेलेक्ख । अर्थ समान हैं
(2)
तुलना कीजिए :- चित्तभितिं न निज्झाए, नारि वा अलकिकश - 15 भक्खर पिक क्षणं दिष्टि पडिमा
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दशवै०८/५४
सुरा यहाँ जाव सब्द से प्रपशास से लेकर मोगणं वा वह का पाठ समझें (c)