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________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ४४० - १४५ अनभिक्रान्ता में तो वे आवासगृह अभी पुरुषान्तरकृत, परिभुक्त एवं आसेवित न होने से अकल्पनीय हैं ही - निर्ग्रन्थ साधुओं के आवास के लिए। वा और महावा दोनों प्रकार की शय्या अकल्पनीय हैं, क्योंकि वा में साधुसमाचारी से अनभिज्ञ गृहस्थ साधु को उपाश्रय देने हेतु अपने लिए बनाने का बहाना बनाता है; महावा में गृहस्थ उक्त आवासस्थान को श्रमणादि की गणना करके उनके निमित्त से ही उक्त आवासगृह बनवाता है, इसलिए वह निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए कल्पनीय नहीं हो सकता। अब रही सावद्या और महासावद्या शय्या। जब गृहस्थ सभी प्रकार के श्रमणों के लिए आवासगृह बनवाता है, उसमें ठहरने पर निर्ग्रन्थ साधु के लिए वह सावद्या शय्या हो जाती है, क्योंकि सावद्या में तो उपाश्रय-निर्माण में षटकायिक-जीवों का संरभ, समारम्भ और आरम्भ होता है। वही शय्या जब खासतौर से सिर्फ निर्ग्रन्थ श्रमणों के लिए ही गृहस्थ बनवाता है, और उसमें निर्ग्रन्थ साधुसाध्वी ठहरते हैं तो वह उनके लिए 'महासावद्या' हो जाती है। वृत्तिकार ने दोनों प्रकार की शय्यायें अकल्पनीय , अप्रासुक एवं अनेषणीय बताई हैं। महासावद्याशय्या का सेवन करने से साधु द्विपक्ष-दोष का भागी होता है। पाँच प्रकार के श्रमण ये हैं- "निग्गंथ-सक्क-तावस-गेरुअ-आजीव पंचहा समणा" (१) निर्ग्रन्थ (२) शाक्य (बौद्ध), (३) तापस, (४) गैरिक और (५) आजीवक ये पाँच प्रकार के श्रमण हैं। जहाँ गृहस्थ केवल अपने निमित्त अपने ही विशिष्ट प्रयोजन के लिए विभिन्न मकानों का निर्माण कराता है, उसमें आरम्भजनित क्रिया उस गृहस्थ को लगती है, साधु तो उसमें विहार करता हुआ आकर अनायास- सहज रूप में ही ठहर जाता है, मासकल्प या चातुर्मास कल्प बिताता है तो उसके लिए वह अल्पक्रिया-शय्या निर्दोष है, कल्पनीय है। यहाँ वृत्तिकार 'अल्प' शब्द को अभाववाचक मानते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस आवासस्थान के निर्माण में साधु को आधाकर्मादि कोई दोष नहीं लगता, कोई क्रिया नहीं लगती, वह परिकर्मादि से मुक्त सावधक्रियारहित शय्या है। उस उपाश्रय में निरवद्य क्रियाएँ साधु करता है, इसलिए शास्त्रकार ने मूल में इनका नाम 'अल्पक्रिया' न रखकर 'अल्पसावधक्रिया' रखा है। 'उडुबद्धियं' आदि पदों के अर्थ- ऋतुबद्धकाल- शेषकाल यानी चातुर्मास छोड़कर आठ मास; मासकल्प, वासावासियं- वर्षावास सम्बन्धी काल- चातुर्मास काल या चातुर्मास कल्प। उवातिणित्ता- व्यतीत करके, अपरिहरित्ता- परिहार न करके, यानी अन्यत्र न बिताकर। सड्डा- श्राद्ध- श्रावक गण या श्रद्धालु भक्तजन। आएसणाणि- लुहार, सुनार आदि की शालाएँ, आयतणाणि- देवालयों के पास बनी हुई धर्मशालाएँ या कमरे । सभा- वैदिक आदि लोगों की शालाएँ, पणियगिहाणि- दुकानें, पणियसालाओ— विक्रेय वस्तुओं को रखने के गोदाम, कम्मंताणि- कारखाने, दब्भ-दर्भ, वन्भ- वर्ध- चमड़े की बरत-रस्सा, वव्व या वक्क- वल्कल- छाल। सेलोवट्ठाण- पाषाणमण्डप, भवणगिहाणि
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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