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________________ १४४ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध (९) अल्पसावधक्रिया- जो शय्या पूर्वोक्त (कालातिक्रान्तादि) दोषों से रहित गृहस्थ के द्वारा केवल अपने ही लिए अपने ही प्रयोजन से बनाई जाती है और उसमें विचरण करते हुए, साधु अनायास ही ठहर जाते हैं वह अल्प सावधक्रिया कहलाती है। १ 'अल्प' शब्द यहाँ अभाव का वाचक है। अतएव ऐसी वसति सावधक्रिया रहित अर्थात् निर्दोष है। कालातिक्रान्ता आदि के सूत्रों से पूर्व अन्य मतानुयायी साधुओं के बारबार आवागमन वाले अवास स्थानों में निर्ग्रन्थ साधुओं के लिए ऋतुबद्ध मासकल्प या चातुर्मासकल्प करने का निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि ऊपरा-ऊपरी किसी एक ही स्थान में मासकल्प या चातुर्मासकल्प करने से दूसरे स्थानों को लाभ नहीं मिलता। साधुओं के दर्शन-श्रवण के प्रति अरुचि एवं अश्रद्धा पैदा हो जाती है। "अतिपरिचयादवज्ञा' वाली कहावत भी चरितार्थ हो सकती है। मूल में यहाँ 'साहम्मिएहिं ओवयमाणेहिं ' पद है, जिनका शब्दश: अर्थ होता हैयदि साधर्मिक साधु बराबर आते-जाते हों तो .... । इन नौ प्रकार की शय्याओं में पहले-पहले की ८ शय्याएँ ३ दोष युक्त होने से साधुओं के लिए अविहित मालूम होती हैं। अन्तिम 'अल्पसावधक्रिया' या 'अल्पक्रिया' शय्या विहित है। वास्तव में देखा जाए तो प्रथम दो प्रकार की शय्या (वसतिस्थान या मकान) अपने आप में दोषयुक्त नहीं हैं, वे दोनों साधु के अविवेक के कारण दोषयुक्त बनती हैं। अभिक्रान्ता और अनभिक्रान्ता शय्या को वृत्तिकार क्रमश: अल्पदोषा और अकल्पनीय बताते हैं। अभिक्रान्ता में उक्त आवास स्थानों के निर्माण में भावुक गृहस्थ का उद्देश्य सभी प्रकार के भिक्षाचरों को ठहराने का होता है, उनमें 'निर्ग्रन्थ-श्रमण' भी उसके निर्माण-उद्देश्य के अन्तर्गत आ जाते हैं और - एक प्रकार के साधर्मिक श्रमण-वर्ग के उद्देश्य के गृहस्थ जो लोहकारशाला यावत् भवनगृह आदि बनवाता है, षट्जीवनिकाय के, महान् समारम्भ से महान्, आरम्भ समारम्भ से। साथ ही अनेक प्रकार के आरम्भों से संयमी साधु के लिए मकान पर छप्पर छाता है, लीपता है, संस्तारकों को अदल-बदल करता है, द्वार बनवाता है, बाड़ा बन्द करता है। वृत्तिकार किसी एक साधार्मिक के उद्देश्य से बनाई हुई शय्या को महासावद्या कहते हैं। चूर्णिकार ने अल्पसावद्या की व्याख्या इस प्रकार की है - "अप्पसावजाए- अप्पणो सयट्टाए चेवेति, इतराइतरेहिं, इह अप्पसत्थाणि वजिता पसत्थेहिं पाहुडेहिं णेव्वाणस्स सग्गस्स वा एगपक्खं कम्मं सेवति। एगपक्खं इरियावहियं। एसा अप्पसावज्जा।"- अल्पसावद्या शय्या-गृहस्थ अपने - निजी प्रयोजन के लिए बनवाता है। इतराइतरेहिपाहुडेहि ..... इसमें अप्रशस्त प्राभृत्त (साधु के लिए सावधक्रिया से युक्त मकान की भेंट) छोड़कर साधु प्रशस्त प्राभृत्तों (तप, संयम, कायोत्सर्ग, ध्यान आदि निरवद्य क्रियाओं के उपहारों) से निर्वाण का या स्वर्ग के एकपक्षीय कम्र या सेवन करता है। एकपक्ष ईर्यापथिक। यह अल्पसावद्याशय्या का स्वरूप है। २. वृहत्कल्पभाष्य मलय० वृत्ति० गा० ५९३ से ५९९ तक। ३. एक मत के अनुसार-९ में से- अभिक्रान्ता एवं अल्पसावधक्रिया दो को छोड़कर शेष ७ अग्राह्य हैं।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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