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________________ द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक: सूत्र ४३२ - ४४१ और वर्षाकाल (चौमासे) में रहे हों, ये दोनों काल पूर्ण होने पर भी जहाँ ठहरा जाए। (२) उपस्थाना • ऋतुबद्धवास और वर्षावास का जो काल नियत है, उससे दुगुना काल अन्यत्र बिताये बिना ही अगर पुनः उसी उपाश्रय में आकर साधु ठहरते हैं तो वह उपस्थानाशय्या कहलाती है । १ (३) अभिक्रान्ता . जो शय्या (धर्मशाला) सार्वजनिक और सार्वकालिक ( यावन्तिकी है, उसमें पहले से चरक, पाषण्ड, गृहस्थ आदि ठहरे हुए हैं, बाद में निर्ग्रन्थ साधु भी आकर ठहर जाते हैं तो वह अभिक्रान्ता - शय्या कहलाती है । (४) अनभिक्रान्ता - वैसी ही सार्वजनिक- सार्वकालिक ( यावन्तिकी) शय्या ( धर्मशाला) में चरकादि अभी तक ठहरे नहीं हैं उसमें यदि निर्ग्रन्थ साधु ठहर जाते हैं तो वह अनभिक्रान्ता कहलाती है । ( ५ ) वर्ज्या वसति (शय्या) वह कहलाती है जो अपने लिए गृहस्थ ने बनवाई थी, लेकिन बाद में उसे साधुओं को रहने के लिए दे दी, और स्वयं ने दूसरी वसति अपने लिए बनवा ली । वह वर्जित होने के कारण साधु के लिए वर्ज्या — त्याज्य है । (६) महावर्ज्या - जो वसति ( मकान) बहुत से श्रमणों, भिक्षाचरों, ब्राह्मणों आदि के ठहरने के लिए गृहस्थ नये सिरे से आरम्भ करके बनवाता है, वह महावर्ज्या कहलाती है । २ वह अकल्पनीय है । (७) सावद्या – जो वसति पाँचों ही प्रकार के श्रमणों (निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक, आजीवक) के लिए गृहस्थ बनाता है, वह सावद्या - शय्या कहलाती है । - (८) महासावद्या • जो सिर्फ जैन श्रमणों के निमित्त ही गृहस्थ द्वारा बनवाई जाती है, वह महासावद्या - शय्या कहलाती है। - १४३ १. चूर्णिकार के शब्दों में उपस्थाना की व्याख्या - 'उवट्ठाणा - एते चेव करेत्ता दुगुणं अपरिहरेत्ता पुणो करेति ।' अर्थात्— 'उपस्थाना दोषयुक्त शय्या वह है, जहाँ ऋतुबद्धवास या वर्षावास — ये दोनों नियतकाल तक बिताकर उनसे दुगुना-दुगुना काल बिताए बिना ही पुनः ऋतुबद्धवास या वर्षावास किया जाए।' उदाहरण के लिए एक मासकल्प ठहरकर दो मास बाहर बिताना तथा एक वर्षावास करके दो वर्षावास अन्यत्र बिताना यह विधि है, इसका उल्लंघन करने पर उपस्थानाक्रिया लगती है । ३. २. चूर्णिकार महावर्ज्या और सावद्या शय्या का अन्तर बताते हुए कहते हैं— "महावज्जा पासंडाणं अट्ठाए, एसा चेव वत्तव्वया, सावज्जा पंचण्हं समणाणं पगणित २, एसा चेव वत्तव्वया''–अर्थात्— महावर्या— पाषण्डों— साधुवेषधारियों के लिए होती है, यह वक्तव्यता (गुरु परम्परा) है तथा सावद्या पांच प्रकार के श्रमणों के लिए बनवाई जाती है, यह वक्तव्यता है । 'महासावद्या' के सम्बन्ध में चूर्णिकारकृत व्याख्या – 'महासावज्जा एगं समणजातं, समुद्दिस जाव भवणगिहाणि वा महता छज्जीवनिकाय-समारंभेणं महता आरंभसमारंभेणं अणेगप्पगारेहिं च आरंभेहि संजयट्ठाए छाविंति लिप्यंति संथारगा ओयट्टगा कुणंति, दुवारं करेंति, पिंधति वाडो ।'- अर्थात् "
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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