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________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ४१३ ११७ नहीं होता था। परन्तु वर्तमान में 'उपाश्रय' शब्द साधु-साध्वियों के ठहरने के नियत स्थान में रूढ़ हो गया है। स्थान का निर्वाचन करते समय साधु को सर्वप्रथम यह देखना चाहिए कि उसमें अंडे, जीव जन्तु, बीज, हरियाली, ओस, कच्चा पानी, काई, लीलन-फूलन, गीली मिट्टी या कीचड़, मकड़ी के जाले आदि तो नहीं हैं? क्योंकि साधु अगर अंडे या जीव जन्तुओं आदि से युक्त स्थान में ठहरेगा तो अनेक जीवों की विराधना उसके निमित्त से होगी, अतः अहिंसा का पूर्ण उपासक मुनि ऐसे हिंसा की सम्भावनावाले स्थान का निर्वाचन कैसे कर सकता है? हाँ, ये सब जीव जन्तु आदि जहाँ न हों, ऐसे निरवद्य स्थान को चुनकर उसमें वह ठहरे। २ उपाश्रय का निर्वाचन - चयन साधु मुख्यतया तीन कार्यों के लिए करता था - (१) कायोत्सर्ग के लिए, (२) सोने-बैठने आदि के लिए, (३) स्वाध्याय के लिए। इसके लिए यहाँ तीन विशिष्ट शब्द प्रयुक्त किए गए हैं - ठाणं, सेजं, निसीहियंइन तीनों का अर्थ है - ठाणं- स्थान – कायोत्सर्ग । सेजं - शय्या - संस्तारक अथवा उपाश्रय/वसति । निसीहियं- स्वाध्याय-भूमि। प्राचीनकाल में स्वाध्याय-भूमि आवास-स्थान से अलग एकान्त-स्थान में होती थी, जहाँ लोगों के आवागमन का निषेध होता था, इसीलिए स्वाध्यायभूमि को निषेधिकी २ (दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित 'नसिया') कहा जाता था। उपाश्रय-एषणा [ द्वितीय विवेक] ४१३. से जं पुण उवस्सयं जाणेजा-अस्सिपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स पाणाई ५४ १. दसवैकालिक अगस्त्य० चूर्णि पृ० ११६, सेज उवस्सओ। २. टीका पत्र ३६० के आधार पर ३. (क) टीका पत्र ३६० के आधार पर (ख) दशवै० ५/२. अगस्त्य० चूर्णि पृ० १२६ - "णिसीहिया सज्झायठाणं, जम्मि वा रुक्खमूलादौ सैव निसीहिया।' ४. चूर्णिकार के अनुसार यहाँ ६ आलाप 'एगं साहम्मियं' को लेकर होते हैं - 'एगं साहम्मियं समुद्दिस्स छ आलावा तहेव जहा पिंडेसणाए, णवरं बहिया णीहडं छ, णीसगडं वा छ, इतगं णीणिजति। यहाँ एक साधर्मिक को लेकर ६ आलाप उसी तरह होते हैं, जिस तरह पिण्डैषणा अध्ययन में बताए गए थे। विशेष यह है कि बहिया नीहडं के ६ तथा णीसगडं के ६ आलाप यहाँ से अन्यत्र लागू होते हैं। तात्पर्य यह है कि बहिया नीहडं वा, अणीहडं वा, अत्तट्टियं या, अणत्तट्ठियं वा, परिभुत्तं वा, अपरिभुत्तं वा; ये ६ पद शय्याऽध्ययन में उपयोगी नहीं हैं, चूर्णिकार का यह आशय प्रतीत होता है। पाणाई के बाद '४' के अंक से पाणाई, भूताई,जीवाई सत्ताई ऐसा पाठ सर्वत्र समझें।
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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