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प्रथम अध्ययन : नवम उद्देशक: सूत्र ३९७-३९८
ग्रासैषणा-विवेक
___ ३९७. से भिक्खू वा २ से जं पुण जाणेज्जा असणं व ४ परं समुद्दिस्स बहिया णीहडं तं परेहिं असमणुण्णातं अणिसिटुं १ अफासुयं जाव णो पडिगाहेजा। तं परेहिं समणुण्णातं समणुसटुं फासुयं जाव लाभे संते पडिगाहेजा।
३९७. गृहस्थ के घर में आहार-प्राप्ति के लिए प्रविष्ट साधु या साध्वी यदि जाने कि दूसरे (गुप्तचर, भाट आदि) के उद्देश्य से बनाया गया आहार देने के लिए निकाला गया है, परन्तु अभी तक उस घरवालों ने उस आहार को ले जाने की अनुमति नहीं दी है और न ही उन्होंने उस आहार को ले जाने या देने के लिए उन्हें सौंपा है, (ऐसी स्थिति में) यदि कोई उस आहार को लेने की साधु को विनती करे तो उसे अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर स्वीकार न करे।
यदि गृहस्वामी आदि ने गुप्तचर भाट आदि को उक्त आहार ले जाने की भलीभांति अनुमति दे दी है तथा उन्होंने वह आहार उन्हें अच्छी तरह से सौंप दिया है और कह दिया है – तुम जिसे चाहो दे सकते हो, (ऐसी स्थिति में) साधु को कोई विनती करे तो उस आहार को प्रासुक और एषणीय समझकर ग्रहण कर लेवें।
विवेचन - आहार-ग्रहण में विवेक- इस सूत्र में एक के स्वामित्व का आहार दूसरा कोई देने लगे तो साधु को कब लेना है, कब नहीं? इस सम्बन्ध में स्पष्ट विवेक बताया है। जिसका उस आहार पर स्वामित्व है, उस घरवाले यदि दूसरे व्यक्ति को उस आहार को सौंप दें और यथेच्छ दान की अनमति दे दें तो वह आहार साध के लिए ग्राह्य है अन्यथा नहीं।
नीहडं आदि पदों के अर्थ -नीहडं-निकाला गया है, असमणुण्णातं - किसको देना है, इसकी सम्यक् प्रकार से अनुज्ञा (अनुमति) नहीं दी गई है, 'अणिसिटुं' - सौंपा नहीं
गया है।
३९८. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं। ३९८. यही उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञान-दर्शनादि की) समग्रता है। ६
॥णवमो उद्देसओ समत्तो॥
१. इसके स्थान पर असमणिटुं पाठान्तर है। अर्थ होता है - सम्यक् प्रकार से नहीं दिया गया है।
अफासुयं के बाद जाव शब्द 'अणेसणिज मण्णमाणे लाभे संते'- इतने पाठ का सूचक है। ३. समणुसहूं के स्थान पर पाठान्तर मिलते हैं -समणिसटुं, समणिटुं णिसटुं तथा णिसिट्टे आदि । अर्थ
क्रमशः यों हैं -सम्यक रूप से सौंप दिया, अच्छी तरह से दिया है, दे दिया है, सौंप दिया है। ४. यहाँ फासुयं के बाद जाव शब्द एसणिज मण्णमाणे-इतने पाठ का सूचक है। ५. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३५२
इसका विवेचन सूत्र ३३४ के अनुसार समझें।