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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
दसमो उद्देसओ
दशम उद्देशक आहार-वितरण विवेक
३९९.से एगतिओ साहारणं वा पिंडवातं पडिगाहेत्ता ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्धं खद्धं दलाति। मातिट्ठाणं संफासे। णो एवं करेजा।
सेत्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छित्ता पुत्वामेव एवं वदेजा-आउसंतो समणा! संति मम पुरेसंथुया वा पच्छासंथुया वा, तंजहा- आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणधरे वा गणावच्छेइए वा, अवियाई एतेसिं खद्ध खद्धं दाहामि? * से णेवं वदंतं परो वदेजा-कामं खलु आउसो! अहापजत्तं निसिराहि। * जावइयं २ परो वदति तावइयं २ णिसिरेजा। सव्वमेतं परो वदति सव्वमेयं णिसिरेजा।
४००. से एगइओ मणुण्णं भोयणजातं पडिगाहेत्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएति 'मामेतं दाइयं संतं दठू णं सयमादिए। तं [ जहा-] आयरिए वा जाव गणावच्छेइए वा' । णो खलु मे कस्सइ किंचि वि दातव्वं सिया। माइट्ठाणं संफासे। णो एवं करेजा।
सेत्तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, २ [त्ता] पुव्वामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्ट इमं खलु इमं खलु त्ति आलोएज्जा। णो किंचि वि विणिगृहेज्जा।
४०१. से एगतिओ अण्णतरं भोयणजातं पडिगाहेत्ता भद्दयं भद्दयं भोच्चा विवण्णं विरसमाहरति। मातिट्ठाणं संफासे।णो एवं करेजा।
३९९. कोई भिक्षु बहुत-से साधुओं के लिए गृहस्थ के यहाँ से साधारण अर्थात् सम्मिलित आहार लेकर आता है और उन साधर्मिक साधुओं से बिना पूछे ही (अपनी इच्छा से) जिसे-जिसे चाहता है, उसे-उसे बहुत-बहुत दे देता है, तो ऐसा करके वह माया-स्थान का स्पर्श करता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। * इस चिह्न का पाठ कुछ प्रतियों में नहीं है। १. कामं खलु आउसो आदि पाठ की व्याख्या चूर्णिकार के इस प्रकार की है-कामं णाम इच्छात:
अहापजत्तं जहापजत्तं, जावइयं वा वदेजा। काम का अर्थ है-स्वेच्छा से, जिसके लिए जितना
पर्याप्त हो, अथवा जितना आचार्यादि कहें ---- २. जावइयं और तावइयं के पश्चात् '२' का चिह्न उसी की पुनरावृत्ति का सूचक है। ३. इसके स्थान पर सदमादिए, सतमातिए पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ समान है। ४. इसके स्थान पर पाठान्तर है-विणिग्गहेजा, निग्गहेजा, णिगृहेज्जा, अर्थ क्रमशः यों है- अदला
बदली (हेरा-फेरी) करे, अपने कब्जे में करे, छिपाए-माया करे।