________________
आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
इस आहार में से जितना हम खा-पी सकेंगे,खा-पी लेंगे, अगर हम यह सारा का सारा उपभोग कर सके तो सारा खा-पी लेंगे।
विवेचन- स्वादलोलुपता और माया- प्रस्तुत चार सूत्रों में संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम और कारण, इन पाँच ग्रासैषणा या परिभोगैषणा के दोषों को साधुजीवन में प्रविष्ट होने वाली स्वादलोलुपता और उसके साथ संलग्न होने वाली मायावृत्ति के माध्यम से ध्वनित कर दिया है। वास्तव में जब साधुता के साथ स्वादुता का गठजोड़ हो जाता है, तब मांसाहारी-निर्मांसाहारी, घृणित-अघृणित, निन्द्य-अनिन्द्य कैसा ही घर हो, जरा-सा विशेष भावुक देखा कि ऐसा साधु समय-कुसमय, कारण-अकारण, मर्यादा-अमर्यादा का विचार किये बिना ही ऐसे गृहस्थ के यहाँ जा पहुँचता है। इससे अपने संयम की हानि तो होती ही है, धर्मसंघ की बदनामी बहुत अधिक होती है। भले ही वह साधु आमिषाहारी के यहाँ से निरामिष भोजन ही लेता हो, परन्तु स्थूलदृष्टि जनता की आँखों में तो वह वर्तमान अन्य भिक्षुओं की तरह सामिषभोजी ही प्रतीत होगा। .
यही कारण है कि शास्त्रकार ने णण्णत्थ गिलाणाए कहकर स्पष्टतया सावधान कर दिया है कि रोगी के कार्य के सिवाय ऐसे आमिषभोजी घर में न तो प्रवेश करे, न उनसे सात्त्विक भोजन की भी याचना करे।
मनोज्ञ आहार-पानी का उपभोग और अमनोज्ञ का परित्याग : चिन्तनीय – स्वाद लोलुपता धर्मसंघ एवं तथाकथित साधुओं के प्रति अश्रद्धा और मायावृद्धि का कारण है। यदि किसी कारणवश अधिक आहार आ गया हो, या गृहस्थ ने भावुकतावश पात्र में अधिक भोजन उंडेल दिया हो तो ऐसे आहार को खाने के बाद, शेष बचे हुए आहार का परिष्ठापन करने से पहले ढाई कोस के अन्दर निम्नोक्त प्रकार के साधु-साध्वियों की खोज करके, वे हों तो उन्हें मनुहार करके दे देने का शास्त्रकार ने विधान किया – (१) साधर्मिक, (२) सांभोगिक, (३) समनोज्ञ और (४) अपारिहारिक। इन चारों का एक दूसरे से उत्तरोत्तर सूक्ष्म सम्बन्ध है। ३
पिण्डनियुक्ति में नाम आदि १२ प्रकार के साधर्मियों का उल्लेख है। वह इस प्रकार है(१) नामसाधर्मिक, (२) स्थापनासाधर्मिक, (३) द्रव्यसाधर्मिक, (४) क्षेत्रसाधर्मिक, (५) कालसाधर्मिक, (६) प्रवचनसाधर्मिक, (७) लिंग (वेष)-साधर्मिक, (८) ज्ञानसाधर्मिक, (९) दर्शनसाधर्मिक, (१०) चारित्रसाधर्मिक, (११) अभिग्रहसाधर्मिक और (१२) भावना-साधर्मिक। इनमें से नामादि से लेकर काल-साधर्मिक तक को छोडकर शेष ७ प्रकार के साधर्मिकों के साथ यथायोग्य व्यवहार का विवेचन करना चाहिए। १. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक ३५२ के आधार से।
(ख) आचारांग चूर्णि मूल पाठ टिप्पण पृ. १३६ २. साधर्मिक आदि चारों पदों का अर्थ पहले किया जा चुका है, देखें सूत्र ३२७ एवं ३३१ का विवेचन। ३. आचारांग वृत्ति पत्रांक ३४२ ४. पिण्डनियुक्ति गा. १३८ से १४१ तक