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________________ द्वितीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ७९-८० को प्राप्त होता है। भगवान् ने यह बताया है - (जो क्रूर कर्म करता है, वह मूढ होता है । मूढ मनुष्य सुख की खोज में बार-बार दुःख प्राप्त करता है)। ये मूढ मनुष्य अनोघंतर हैं, अर्थात् संसार-प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं होते। (वे प्रव्रज्या लेने में असमर्थ रहते हैं) वे अतीरंगम हैं, तीर - किनारे तक पहुंचने में (मोह कर्म का क्षय करने में) समर्थ नहीं होते। वे अपारंगम हैं, पार - (संसार के उस पार - निर्वाण तक) पहुँचने में समर्थ नहीं होते। वह (मूढ) आदानीय - सत्यमार्ग (संयम-पथ) को प्राप्त करके भी उस स्थान में स्थित नहीं हो पाता। अपनी मूढता के कारण वह असत्मार्ग को प्राप्त कर उसी में ठहर जाता है। विवेचन - इस सूत्र में परिग्रह-मूढ मनुष्य की दशा का चित्रण है। वह सुख की इच्छा से धन का संग्रह करता है किन्तु धन से कभी सुख नहीं मिलता। अन्त में उसके हाथ दुःख, शोक, चिन्ता और क्लेश ही लगता है। ___ परिग्रहमूढ अनोघंतर है - संसार त्याग कर दीक्षा नहीं ले सकता। अगर परिग्रहासक्ति कुछ छूटने पर दीक्षा ले भी ले तो जब तक उस बंधन से पूर्णतया मुक्त नहीं होता, वह केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता, और न संसार का पार - निर्वाण प्राप्त कर सकता है। चूर्णिकार ने 'आदानीय' का अर्थ - पंचविहो आयारो - पांच प्रकार का आचार अर्थ किया है कि वह परिग्रही मनुष्य उस आचार में स्थित नहीं हो सकता।' चूर्णिकार ने इस गाथा (२) को एक अन्य प्रकार से भी उद्धृत किया है, उससे एक अन्य अर्थ ध्वनित होता है, अतः यहां वह गाथा भी उपयोगी होगी- . आदाणियस्स आणाए तम्मि ठाणे ण चिट्ठइ । वितहं पप्पऽखेत्तण्णे तम्मि ठाणम्मि चिट्ठइ ॥ ___ - आदानीय अर्थात् ग्रहण करने योग्य संयम मार्ग में जो प्रवृत्त है, वह उस स्थान - (मूल ठाणे - संसार) में नहीं ठहरता । जो अखेत्तण्णे - (अक्षेत्रज्ञ) अज्ञानी है, मूढ है, वह असत्य-मार्ग का अवलम्बन कर उस स्थान (संसार) में ठहरता है। ८०. उद्देसो पासगस्स णत्थि । बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमितदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्ल्ड अणुपरियट्टति त्ति बेमि । ॥तइओ उद्देसओ समत्तो ॥ .८०. जो द्रष्टा है, (सत्यदर्शी है) उसके लिए उपदेश की आवश्यकता नहीं होती। अज्ञानी पुरुष, जो स्नेह के बंधन में बंधा है, काम-सेवन में अनुरक्त है, वह कभी दुःख का शमन नहीं कर पाता। वह दुःखी होकर दुःखों के आवर्त में - चक्र में बार-बार भटकता रहता है। १. आचा० (जम्बूविजय जी), टिप्पण पृष्ठ २३ अखेतण्णो अपंडितो से तेहिं चेव संसारहाणे चिट्ठति - चूर्णि (वही, पृष्ठ २३)
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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