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________________ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध "पिआउया के स्थान पर चूर्णि में पियायगा व टीका में 'पियायया' पाठान्तर भी है। जिनका अर्थ है प्रिय आयतः-आत्मा, अर्थात् जिन्हें अपनी आत्मा प्रिय है, वे जगत् के सभी प्राणी। यहाँ प्रश्न उठ सकता है प्रस्तुत परिग्रह के प्रसंग में सब को सुख प्रिय है, दु:ख अप्रिय है' यह कहने का क्या प्रयोजन है ? यह तो अहिंसा का प्रतिपादन है। चिन्तन करने पर इसका समाधान यों प्रतीत होता है - ___ 'परिग्रह का अर्थी स्वयं के सुख के लिए दूसरों के सुख-दुःख की परवाह नहीं करता, वह शोषक तथा उत्पीड़क भी बन जाता है। इसलिए परिग्रह के साथ हिंसा का अनुबंध है। यहाँ पर सामाजिक न्याय की दृष्टि से भी यह बोध आवश्यक है कि जैसे मुझे सुख प्रिय है, वैसे ही दूसरों को भी। दूसरों के सुख को लूटकर स्वयं का सुख न चाहे, परिग्रह न करे, इसी भावना को यहाँ उक्त पद स्पष्ट करते हैं। परिग्रह से दुःखवृद्धि ७९. तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिजुंजियाणं संसिंचियाणं तिविधेण जा वि से तत्थ मत्ता भवति अप्पा वा बहुगा वा । से तत्थ गढिते चिट्ठति भोयणाए । ततो से एगदा विप्परिसिटुं संभूतं महोवकरणं भवति । तं पि से एगदा दायादा विभयंति, अदत्तहारो वा सेअवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डझति । इति से परस्सऽट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमुवेति । मुणिणा हु एतं पवेदितं ।। अणोहंतरा एते, णो य ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एते, णो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एते, णो य पारं गमित्तए । आयाणिजं च आदाय तम्मि ठाणे च चिट्ठति । वितहं पप्प खेत्तण्णे तम्मि ठाणम्मि चिट्ठति ॥२॥ ७९. वह परिग्रह में आसक्त हुआ मनुष्य, द्विपद (मनुष्य-कर्मचारी) और चतुष्पद (पशु आदि) का परिग्रह करके उनका उपयोग करता है। उनको कार्य में नियुक्त करता है। फिर धन का संग्रह-संचय करता है। अपने, दूसरों के और दोनों के सम्मिलित प्रयत्नों से (अथवा अपनी पूर्वार्जित पूँजी, दूसरों का श्रम तथा बुद्धि - तीनों के सहयोग से) उसके पास अल्प या बहुत मात्रा में धनसंग्रह हो जाता है। वह उस अर्थ में गृद्ध - आसक्त हो जाता है और भोग के लिए उसका संरक्षण करता है। पश्चात् वह विविध प्रकार से भोगोपभोग करने के बाद बची हुई विपुल अर्थ-सम्पदा से महान् उपकरण वाला बन जाता है। एक समय ऐसा आता है, जब उस सम्पत्ति में से दायाद - बेटे-पोते हिस्सा बंटा लेते हैं, चोर चुरा लेते हैं,राजा उसे छीन लेते हैं। या वह नष्ट-विनष्ट हो जाती है। या कभी गृह-दाह के साथ जलकर समाप्त हो जाती है। इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष, दूसरों के लिए क्रूर कर्म करता हुआ अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है, फिर उस दुःख से त्रस्त हो वह सुख की खोज करता है, पर अन्त में उसके हाथ दुःख ही लगता है । इस प्रकार वह मूढ विपर्यास - १. पिओ अप्पा जेसिं से पियायगा - चूर्णि (आचा० जम्बू० टिप्पण, पृष्ठ २२)
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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