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________________ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - यहाँ पश्यक- शब्द द्रष्टा या विवेकी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। टीकाकार ने वैकल्पिक अर्थ यों किया है - जो पश्यक स्वयं कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेक रखता है, उसे अन्य के उपदेश की आवश्यकता नहीं है। अथवा पश्यक - सर्वज्ञ हैं, उन्हें किसी भी उद्देस - नारक आदि तथा उच्च-नीच गोत्र आदि के व्यपदेश - संज्ञा की अपेक्षा नहीं रहती। णिहे- के भी दो अर्थ हैं - (१) स्नेही अथवा रागी, (२) णिद्ध (निहत) कषाय, कर्म परीषह आदि से बंधा या त्रस्त हुआ अज्ञानी जीव।। ॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥ चउत्थो उद्देसओ ___ चतुर्थ उद्देशक काम-भोग-जन्य पीड़ा ८१. ततो से एगया रोगसमुप्पाया समुप्पजति । जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वणं एगया णियगा पुव्वि परिवयंति, सो वा ते णियए पच्छा परिवएजा । णालं ते तव ताणाए वा सरणाए 'वा, तुम पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा । ८२. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं । भोगामेव अणुसोयंति, इहमेगेसिं माणवाणं तिविहेण जा वि से तत्थ मत्ता भवति अप्पा वा बहुया वा। से तत्थ गढिते चिट्ठति भोयणाए। ततो से एगया विप्परिसिटुं संभूतं महोवकरणं भवति तं पि से एगया दायादा विभयंति अदत्तहारो वा से अवहरति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति वा से, अगारदाहेण वा से डझति । ___ इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई' बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमवेति । ८१. तब कभी एक समय ऐसा आता है, जब उस अर्थ-संग्रही मनुष्य के शरीर में (भोग-काल में) अनेक प्रकार के रोग-उत्पात (पीड़ाएँ) उत्पन्न हो जाते हैं। वह जिनके साथ रहता है, वे ही स्व-जन एकदा (रोगग्रस्त होने पर) उसका तिरस्कार व निंदा करने लगते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार व निंदा करने लगता है। १. २. ३. आचा० टीका पत्रांक ११३।१ अदत्ताहारो- पाठान्तर है। कूराणि कम्माणि - पाठान्तर है।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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