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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध २. ज्ञाति-बल - स्वयं अजेय होने के लिए स्वजन सम्बन्धियों को शक्तिमान् बनाता है। स्वजन-वर्ग की शक्ति को भी अपनी शक्ति मानता है।'
३. मित्र-बल - धन-प्राप्ति तथा प्रतिष्ठा-सम्मान आदि मानसिक-तुष्टि के लिए मित्र-शक्ति को बढ़ाता है।
४. प्रेत्य-बल, ५. देव-बल - परलोक में सुख पाने के लिए, तथा देवता आदि को प्रसन्न कर उनकी शक्ति पाने के लिए, यज्ञ, पशु-बलि, पिंडदान आदि करता है।
६. राज-बल - राजा. का सम्मान एवं सहारा पाने के लिए, कूटनीति की चालें चलता है; शत्रु आदि को परास्त करने में सहायक बनता है।
७. चोर-बल - धनप्राप्ति तथा आतंक जमाने के लिए चोर आदि के साथ गठबंधन करता है।
८. अतिथि-बल, ९. कृपण-बल, १०. श्रमण-बल - अतिथि - मेहमान, भिक्षुक आदि, कृपण - (अनाथ, अपंग, याचक) और श्रमण - आजीवक, शाक्य तथा निर्ग्रन्थ - इनको यश, कीर्ति और धर्म-पुण्य की प्राप्ति के लिए दान देता है।
. 'सपेहाए' - के स्थान पर तीन प्रयोग मिलते हैं ३, सयं पेहाए - स्वयं विचार करके, संपेहाए - विविध प्रकार से चिन्तन करके, सपेहाए- किसी विचार के कारण/विचारपूर्वक। तीनों का अभिप्राय एक ही है। दंडसमादाण' का अर्थ है हिंसा में प्रवृत्त होना।
७४. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं एतेहिं कजेहि दंड समारंभेजा, णेव अण्णं एतेहिं कजेहिं दंड समारंभावेजा, णेवण्णे एतेहिं कजेहि दंडं समारंभंते समणुजाणेजा। एस मग्गे आरिएहिं पवेदिते जहेत्थ कुसले णोवलिंपेज्जासि त्ति बेमि ।
॥बिइओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥ ७४. यह जानकर मेधावी पुरुष पहले बताये गये प्रयोजनों के लिए स्वयं हिंसा न करे, दूसरों से हिंसा न करवाए तथा हिंसा करने वाले का अनुमोदन न करे।
यह मार्ग (लोक-विजय का/संसार से पार पहुंचने का) आर्य पुरुषों ने - तीर्थंकरों ने बताया है। कुशल पुरुष इन विषयों में लिप्त न हों।
- ऐसा मैं कहता हूँ।
॥ द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥
आचारांग चूर्णि इसी सूत्र पर आचा० शीलांक टीका पत्रांक १०४ आचारांग चूर्णि'संप्रेक्षया पर्यालोचनया एवं संप्रेक्ष्य वा'।