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द्वितीय अध्ययन
तइओ उद्देसओ
तृतीय उद्देशक गोत्रवाद-निरसन
७५. से असई उच्चागोए, असई णीयागोए । णो हीणे, णो अतिरित्ते । णो पीहए। इति संखाए के गोतावादी ? के माणावादी ? कंसि वा एगे गिज्झे? तम्हा पंढिते णो हरिसे, णो कुझे। .
७५. यह पुरुष (आत्मा) अनेक बार उच्चगोत्र और अनेकबार नीच गोत्र को प्राप्त ही चुका है। इसलिए यहाँ न तो कोई हीन/नीच है और न कोई अतिरिक्त/विशेष/उच्च है। यह जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करे।
यह (उक्त तथ्य को) जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? कौन मानवादी होगा? और कौन किस एक गोत्र/ स्थान में आसक्त होगा?
इसलिए विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हो और नीचगोत्र प्राप्त होने पर कुपित/दुःखी न हो।
विवेचन - इस सूत्र में आत्मा की विविध योनियों में भ्रमणशीलता का सूचन करते हुए उस योनि/जाति व गोत्र आदि के प्रति अहंकार व हीनता के भावों से स्वयं को त्रस्त न करने की सूचना दी है। अनादिकाल से जो आत्मा कर्म के अनुसार भव-भ्रमण करती है, उसके लिए विश्व में कहीं ऐसा स्थान नहीं है, जहाँ उसने अनेक बार जन्म धारण न किया हो। जैसे कहा है -
नसा जाईन सा जोणी न तं ठाणं न तं कुल ।
जत्थ न जाओमओवाविएसजीवो अणंतसो॥ __ ऐसी कोई जाति, योनि, स्थान और कुल नहीं है, जहाँ पर जीव अनन्त बार जन्म-मृत्यु को प्राप्त न हुआ हो। भगवती सूत्र में कहा है - नत्थि केई परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा न मए वावि' - इस विराट् विश्व में परमाणु जितना भी ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जहाँ यह जीव न जन्मा हो, न मरा हो।।
जब ऐसी स्थिति है, तो फिर किस स्थान का वह अहंकार करे। किस स्थान के लिए दीनता अनुभव करे। क्योंकि वह स्वयं उन स्थानों पर अनेक बार जा चुका है। - इस विचार से मन में समभाव की जागृति करे। मन को न तो अहंकार से दृप्त होने दे, न दीनता का शिकार होने दे। बल्कि गोत्रवाद को, ऊँच-नीच की धारणा को मन से निकालकर आत्मवाद में रमण करे।
___ यहाँ उच्चगोत्र-नीचगोत्र शब्द बहुचर्चित है । कर्म-सिद्धान्त की दृष्टि से 'गोत्र' शब्द का अर्थ है 'जिस कर्म के उदय से शरीरधारी आत्मा को जिन शब्दों के द्वारा पहचाना जाता है, वह 'गोत्र' है।' उच्च शब्द के द्वारा पहचानना
१. नागार्जुनीय वाचना का पाठ इस प्रकार है-'एगमेगे खलु जीवे अतीतद्धाए असई उच्चागोए असई णीयागोए कडगट्ठयाए
‘णो हीणे णो अतिरित्ते।' चूर्णि एवं टीका में भी यह पाठ उद्धत है। २. भगवती सूत्र श० १२ उ०७