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द्वितीय अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र ७२-७३
अर्थ-लोभी की वृत्ति
७२. ' अहो य राओ य परितप्पमाणे. कालाकालसमुट्ठायी संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुपे सहसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो।
७३. से आतबले, से णातबले, से मित्तबले, से पेच्चबले, से देवबले, से रायबले, से चोरबले, से अतिथिबले, से किवणबले, से समणबले, इच्चेतेहिं विरूवरूवेहि कज्जेहिं दंडसमादाणं सपेहाए भया कजति, पावमोक्खो त्ति मण्णमाणे अदुवा आसंसाए ।
७२. (जो विषयों से निवृत्त नहीं होता) वह रात-दिन परितप्त रहता है। काल या अकाल में (धन आदि के लिए) सतत प्रयत्न करता रहता है। विषयों को प्राप्त करने का इच्छुक होकर वह धन का लोभी बनता है। चोर व लुटेरा बन जाता है। उसका चित्त व्याकुल व चंचल बना रहता है। और वह पुनः-पुनः शस्त्र-प्रयोग (हिंसा व संहार) करता रहता है।
___७३. वह आत्म-बल (शरीर-बल), ज्ञाति-बल, मित्र-बल, प्रेत्य-बल, देव-बल, राज-बल, चोर-बल, अतिथि-बल, कृपण-बल और श्रमण-बल का संग्रह करने के लिए अनेक प्रकार के कार्यों (उपक्रमों) द्वारा दण्ड का प्रयोग करता है।
___ कोई व्यक्ति किसी कामना से (अथवा किसी अपेक्षा से) एवं कोई भय के कारण हिंसा आदि करता है। कोई पाप से मुक्ति पाने की भावना से (यज्ञ-बलि आदि द्वारा) हिंसा करता है। कोई किसी आशा - अप्राप्त को प्राप्त करने की लालसा से हिंसा-प्रयोग करता है।
विवेचन - सूत्र ७२, ७३ में हिंसा करने वाले मनुष्य की अन्तरंग वृत्तियों व विविध प्रयोजनों का सूक्ष्म विश्लेषण है।
___ अर्थ-लोलुप मनुष्य, रात-दिन भीतर-ही-भीतर उत्तप्त रहता है, तृष्णा का दावानल उसे सदा संतप्त एवं प्रज्वलित रखता है । वह अर्थलोभी होकर आलुम्पक - चोर, हत्यारा तथा सहसाकारी- दुस्साहसी / बिना विचारे कार्य करने वाला / अकस्मात् आक्रमण करने वाला - डाकू आदि बन जाता है।
मनुष्य का चोर डाकू इत्यारा बनने का मूल कारण - तृष्णा की अधिकता ही है। उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बात बार-बार दुहराई गई है
अतुट्टिदोसेण दुही परस्स .
- लोभाविले आययइ अदत्तं । - ३२२९ - सूत्र ७३ में हिंसा के अन्य प्रयोजनों की चर्चा है । चूर्णिकार ने विस्तार के साथ बताया है कि वह निम्न प्रकार के बल (शक्ति) प्राप्त करने के लिए विविध हिंसाएँ करता है। जैसे -
१. शरीर-बल - शरीर की शक्ति बढ़ाने के लिए - मद्य, माँस आदि का सेवन करता है। १.. इससे पूर्व 'इच्चत्थं गढिए लोए वसति पमत्ते' इतना अधिक पाठ चूर्णि में है।
-आचा० (मुनि जम्बूविजय जी) पृष्ठ २०