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________________ - आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध अपना जीवन बर्बाद कर देता है। इस प्रसंग में ज्ञातासूत्रगत पुण्डरीक-कंडरीक का प्रसिद्ध उदाहरण दर्शनीय एवं मननीय है।' लोभ पर अलोभ से विजय ७१. विमुक्का हु ते जणा जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुगुंछमाणे लद्धे कामे.णाभिगाहति । विणा वि लोभं निक्खम्म एस अकम्मे जाणति पासति । पडिलेहाए णावकंखति, एस अणगारे त्ति पुवच्चति । ७१. जो विषयों के दलदल से पारगामी होते हैं, वे वास्तव में विमुक्त हैं। अलोभ (संतोष) से लोभ को पराजित करता हुआ साधक काम-भोग प्राप्त होने पर भी उनका सेवन नहीं करता (लोभ-विजय ही पार पहुंचने का मार्ग है)। ___ जो लोभ से निवृत्त होकर प्रव्रज्या लेता है, वह अकर्म होकर (कर्मावरण से मुक्त होकर) सब कुछ जानता है, देखता है। जो प्रतिलेखना कर, विषय-कषायों आदि के परिणाम का विचार कर उनकी (विषयों की) आकांक्षा नहीं करता, वह अनगार कहलाता है। विवेचन - जैसे आहार-परित्याग ज्वर की औषधि है, वैसे ही लोभ-परित्याग (संतोष) तृष्णा की औषधि है। पहले पद में कहा है - जो विषयों के दलदल से मुक्त हो गया है वह पारगामी है। चूर्णिकार ने यहाँ प्रश्न उठाया है - ते पुण कहं पारगामिणो-वे पार कैसे पहुंचते हैं ? भण्णति-लोभं अलोभेण दुगुंछमाणा - लोभ को अलोभ से जीतता हुआ पार पहुंचता है। _ 'विणा वि लोभं' के स्थान पर शीलांक टीका में विणइत्तु लोभं पाठ भी है। चूर्णिकार ने विणा विलोभं पाठ दिया है। दोनों पाठों से यह भाव ध्वनित होता है कि जो लोभ-सहित, दीक्षा लेते हैं वे भी आगे चलकर लोभ का त्यागकर कर्मावरण से मुक्त हो जाते हैं। और जो भरत चक्रवर्ती की तरह लोभ-रहित स्थिति में दीक्षा लेते हैं वे भी कर्म-रहित होकर ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्म का क्षय कर ज्ञाता-द्रष्टा बन जाते हैं। प्रतिलेखना का अर्थ है - सम्यक् प्रकार से देखना। साधक जब अपने आत्म-हित का विचार करता है, तब विषयों के कटु-परिणाम उसके सामने आ जाते हैं । तब वह उनसे विरक्त हो जाता है। यह चिन्तन / मननपूर्वक जगा वैराग्य स्थायी होता है। सूत्र ७० में बताये गये कुछ साधकों की भाँति वह पुनः विषयों की ओर नहीं लौटता । वास्तव में उसे ही 'अनगार' कहा जाता हैं। १. - "कोयि पुण विणा विलोभेण निक्खमइ जहा भरहो राया" चूर्णि"विणा वि लोहं" इत्यादि - शीलांक टीका पत्र १०३ २. ज्ञातासूत्र १९
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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