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द्वितीय अध्ययन
बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक
अरति एवं लोभ का त्याग
६९. अरतिं आउट्टे से मेधावी खणंसि मुक्के ।' ७०. अणाणाए पुट्ठा वि एगे णियटृति मंदा मोहेण पाउडा ।
'अपरिग्गहा भविस्सामो' समुट्ठाए लद्धे कामे अभिगाहति । अणाणाए मुणिणो पडिलेहेंति। एत्थ मोहे पुणो पुणो सण्णा णो हव्वाए णो पाराए ।
. ६९. जो अरति से निवृत्त होता है, वह बुद्धिमान है। वह बुद्धिमान् विषय-तृष्णा से क्षणभर में ही मुक्त हो जाता है।
७०. अनाज्ञा में – (वीतराग विहित-विधि के विपरीत) आचरण करने वाले कोई-कोई संयम-जीवन में परीषह आने पर वापस गृहवासी भी बन जाते हैं। वे मंद बुद्धि - अज्ञानी मोह से आवृत्त रहते हैं।
कुछ व्यक्ति - 'हम अपरिग्रही होंगे - ऐसा संकल्प करके संयम धारण करते हैं, किन्तु जब काम-सेवन (इन्द्रिय विषयों के सेवन) का प्रसंग उपस्थित होता है, तो उसमें फँस जाते हैं। वे मुनि वीतराग-आज्ञा से बाहर (विषयों की ओर) देखने/ताकने लगते हैं।
___ इस प्रकार वे मोह में बार-बार निमग्न होते जाते हैं । इस दशा में वे न तो इस तीर (गृहवास) पर आ सकते हैं और न उस पार (श्रमणत्व) जा सकते हैं।
विवेचन - संयम मार्ग में गतिशील साधक का चित्त जब तक स्थिर रहता है तब तक उसमें आनन्द की अनुभूति होती है। संयम में स्व-रूप में रमण करना, आनन्द अनुभव करना रति है। इसके विपरीत चित्त की व्याकुलता, उद्वेगपूर्ण स्थिति-'अरति' है। अरति से मुक्त होने वाला क्षणभर में - अर्थात् बहुत ही शीघ्र विषय / तृष्णा / कामनाओं के बन्धन से मुक्त हो जाता है।
सूत्र ७० में अरति-प्राप्त व्याकुलचित्त साधक की दयनीय मनोदशा का चित्रण है। उसके मन में संयम-निष्ठा न होने से जब कभी विषय-सेवन का प्रसंग मिलता है तो वह अपने को रोक नहीं सकता, उनका लुक-छिपकर सेवन कर लेता है। विषय-सेवन के बाद वह बार-बार उसी ओर देखने लगता है। उसके अन्तरमन में एक प्रकार की वितृष्णा/प्यास जग जाती है । वह लज्जा, परवशता आदि कारणों से मुनिवेश छोड़ता भी नहीं और विषयासक्ति के वश हुआ विषयों की खोज या आसेवन भी करता है । कायरता व आसक्ति के दलदल में फँसा ऐसा पुरुष (मुनि) वेष में गृहस्थ नहीं होता, और आचरण में मुनि नहीं होता। २ - वह न इस तीर (गृहस्थ) पर आता है, और न उस पार (मुनिपद) पर पहुँच सकता है । वह दलदल में फंसे प्यासे हाथी की तरह या त्रिशंकु की भांति बीच में लटकता हुआ १. 'मुत्ते' - पाठान्तर है। २. उभयभ्रष्टो न गृहस्थो नापि प्रव्रजितः। - आचा० टीका पत्रांक १०३