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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध - हे पुरुष ! न तो वे तेरी रक्षा करने और तुझे शरण देने में समर्थ हैं, और न तू ही उनकी रक्षा व शरण के लिए समर्थ है। आत्म-हित की साधना
६८. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं । अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए खणं जाणाहि पंडिते !
जाव सोतपण्णाणा अपरिहीणा जाव णेत्तपण्णाणा अपरिहीणा जाव घाणपण्णाणा अपरिहीणा जाव जीहपण्णाणा अपरिहीणा जाव फासपण्णाणा अपरिहीणा, इच्चेतेहिं विरूवस्वेहिं पण्णाणेहिं अपरिहीणेहिं आय४ सम्म समणुवासेज्जासि त्ति बेमि।
॥ पढमो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ ६८. प्रत्येक प्राणी का सुख और दुःख - अपना-अपना है, यह जानकर (आत्मदृष्टा बने)।
जो अवस्था (यौवन एवं शक्ति) अभी बीती नहीं है, उसे देखकर, हे पंडित ! क्षण (समय) को/अवसर को जान।
जब तक श्रोत्र-प्रज्ञान परिपूर्ण है, इसी प्रकार नेत्र-प्रज्ञान, घ्राण-प्रज्ञान, रसना-प्रज्ञान और स्पर्श-प्रज्ञान परिपूर्ण है, तब तक - इन नानारूप प्रज्ञानों के परिपूर्ण रहते हुए आत्म-हित के लिए सम्यक् प्रकार से प्रयत्नशील बने।
विवेचन - सूत्रगत-आयटुं शब्द, आत्मार्थ - आत्महित के अर्थ में भी है और चूर्णि तथा टीका में आयतटुं' पाठ भी दिया हैं। आयतार्थ - अर्थात् ऐसा स्वरूप जिसका कहीं कोई अन्त या विनाश नहीं है - वह मोक्ष है।.
जब तक शरीर स्वस्थ एवं इन्द्रिय-बल परिपूर्ण है, तब तक साधक आत्मार्थ अथवा मोक्षार्थ का सम्यक् अनुशीलन करता रहे।
'क्षण' शब्द सामान्यतः सबसे अल्प, लोचन-निमेषमात्र काल के अर्थ में आता है। किन्तु अध्यात्मशास्त्र में 'क्षण' जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अवसर है। आचारांग के अतिरिक्त सूत्रकृतांग आदि में भी 'क्षण' का इसी अर्थ में प्रयोग हुआ है। जैसे -
इणमेव खणं वियाणिया- सूत्रकृत १ । २।३ । १९ इसी क्षण को (सबसे महत्त्वपूर्ण) समझो ।
टीकाकार ने 'क्षण' की अनेक दृष्टियों से व्याख्या की है। जैसे कालरूप क्षण - समय। भावरूप क्षण - अवसर। अन्य नय से भी क्षण के चार अर्थ किये हैं, जैसे - (१) द्रव्य क्षण - मनुष्य जन्म । (२) क्षेत्र क्षणआर्य क्षेत्र ।(३) काल क्षण- धर्माचारण का समय।(४) भाव क्षण - उपशम, क्षयोपशम आदि उत्तम भावों की प्राप्ति । इस उत्तम अवसर का लाभ उठाने के लिए साधक को तत्पर रहना चाहिए।
॥प्रथम उद्देशक समाप्त ॥
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आचा० शीलांक टीका, पत्र १००।१ आचा० शीलांक टीका, पत्रांक ९९। १००