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. द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ६६-६७
इस जीवन को एक अंतर स्वर्णिम अवसर समझकर धीर पुरुष मुहूर्त भर भी प्रमाद न करे एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दे।
अवस्थाएँ (बाल्यकाल आदि) बीत रही हैं। यौवन चला जा रहा है 1
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विवेचन - इस सूत्र में 'संयम' के अर्थ में 'अहोविहार' शब्द का प्रयोग हुआ है। मनुष्य सामान्यतः विषय एवं परिग्रह के प्रति अनुराग रखता है। वह सोचता है कि इसके बिना जीवन-यात्रा चल नहीं सकती। जब संयमी, 'अपरिग्रही, अनगार का जीवन उसके सामने आता है, तब उसकी इस धारणा पर चोट पड़ती है। वह आश्चर्यपूर्वक देखता है कि यह विषयों का त्याग कर अपरिग्रही बनकर भी शान्तिपूर्वक जीवन यापन करता है। सांमान्य मनुष्य की दृष्टि में संयम आश्चर्यपूर्ण जीवनयात्रा होने से इसे 'अहोविहार' कहा है।
६६. जीविते इह जे पमत्ता से हतां छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्देवत्ता उत्तासयित्ता, अकडं करिस्सामि त्ति मण्णमाणे ।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते व णं एगया णियगा पुव्विं पोसेंति, सो वा ते णियगे पच्छा पोसेज्जा । णालं तव ताणा वा, सरणाए वा, तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा ।
६६. जो इस जीवन (विषय, कषाय आदि) के प्रति प्रमत्त है / आसक्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव (जीव- वध ) और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है। (जो आज तक किसी ने नहीं किया, वह) ‘अकृत काम मैं करूंगा' इस प्रकार मनोरथ करता रहता है।
जिन स्वजन आदि के साथ वह रहता है, वे पहले कभी (शैशव एवं रुग्ण व्यवस्था में) उसका पोषण करते हैं। वह भी बाद में उन स्वजनों का पोषण करता है। इतना स्नेह सम्बन्ध होने पर भी वे (स्वजन) तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हैं। तुम भी उनको त्राण व शरण देने में समर्थ नहीं हो ।
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६७. उवादीतसेसेण वा संणिहिसिण्णिचयो कज्जति इहमेगेसिं माणवाणं भोयणाए । ततो से एगया रोगसमुपाया समुप्पनंति ।
जेहिं वा सद्धिं संवसति ते व णं एगया पुव्वि परिहरंति, सो वा ते णियए पच्छा परिहरेज़्ज़ा । णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमंपि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा ।
६७. (मनुष्य) उपभोग में आने के बाद बचे हुए धन से, तथा जो स्वर्ण एवं भोगोपभोग की सामग्री अर्जित
संचित करके रखी है उसको सुरक्षित रखता है। उसे वह कुछ गृहस्थों के भोग / भोजन के लिए उपयोग में लेता है ।
( प्रभूत भोगोपभोग के कारण फिर) कभी उसके शरीर में रोग की पीड़ा उत्पन्न होने लगती है ।
जिन स्वजन - स्नेहियों के साथ वह रहता आया है, वे ही उसे (रोग आदि के कारण घृणा करके) पहले छोड़ देते हैं। बाद में वह भी अपने स्वजन-स्नेहियों को छोड़ देता है।
आचा० टीका पत्रांक ९७
'उवातीतसेसं तेण' 'उवातीतसेसेण' - ये पाठान्तर भी हैं।
सन्निधि
- दूध-दही आदि पदार्थ । सन्निचय- चीनी धृत आदि आयारो पृष्ठ ७५
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