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________________ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध . वह वृद्ध / जराजीर्ण पुरुष, न हंसी-विनोद के योग्य रहता है, न खेलने के, न रति-सेवन के और न शृंगार/ सज्जा के योग्य रहता है । ४० विवेचन - इस सूत्र में मनुष्यशरीर की क्षणभंगुरता तथा अशरणता का रोमांचक दिग्दर्शन है। सोतपण्णाण का अर्थ है - सुनकर ज्ञान करने वाली इन्द्रिय अथवा श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा होने वाला ज्ञान, इसी प्रकार चक्षुप्रज्ञान आदि का अर्थ है - देखकर, सूँघकर, चखकर, छूकर ज्ञान करने वाली इन्द्रियाँ या इन इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान । आगमों के अनुसार मनुष्य का अल्पतम आयु एक क्षुल्लक भव (अन्तर्मुहूर्त मात्र ) तथा उत्कृष्ट तीन पल्योपम प्रमाण होता है। इसमें संयम - साधना का समय अन्तर्मुहूर्त से लेकर देशोनकोटिपूर्व तक का हो सकता है। साधना की दृष्टि से समय बहुत अल्प - कम ही रहता है। अतः यहाँ आयुष्य को अल्प बताया है। १ सामान्य रूप में मनुष्य की आयु सौ वर्ष की मानी जाती है। वह दश दशाओं में विभक्त है - १. बाला, २. क्रीडा, ३. मंदा, ४. बला, ५. प्रज्ञा, ६. हायनी, ७. प्रपंचा, ८. प्रचारा, ९. मुम्मुखी और १०. शायनी । साधारण दशा में चालीस वर्ष (चौथी दशा) तक मनुष्य - शरीर की आभा, कान्ति, बल आदि पूर्ण विकसित एवं सक्षम रहते हैं। उसके बाद क्रमशः क्षीण होने लगते हैं। जब इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होने लगती है, तो मन में सहज ही चिंता, भय और शोक बढ़ने लगता है । इन्द्रिय-बल की हानि से वह शारीरिक दृष्टि से अक्षम होने लगता है, उसका मनोबल भी कमजोर पड़ने लगता है। इसी के साथ बुढ़ापे में इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है । इन्द्रिय-शक्ति की हानि तथा विषयासक्ति की वृद्धि के कारण उसमें एक विचित्र प्रकार की मूढता - व्याकुलता उत्पन्न हो जाती है। ऐसा मनुष्य परिवार के लिए समस्या बन जाता । परस्पर में कलह व तिरस्कार की भावना बढ़ती है। वे पारिवारिक स्वजन चाहे कितने ही योग्य व स्नेह करने वाले हों, तब भी उस वृद्ध मनुष्य को, जरा, व्याधि और मृत्यु से कोई बचा नहीं सकता। यही जीवन की अशरणता है, जिस पर मनुष्य को सतत चिन्तन / मनन करते रहना है तथा ऐसी दशा में जो शरणदाता बन सके उस धर्म तथा संयम की शरण लेना चाहिए। 'त्राण' का अर्थ रक्षा करने वाला है, तथा 'शरण' का अर्थ आश्रयदाता है। 'रक्षा' रोग आदि से प्रतीकात्मक है, – 'शरण' आश्रय एवं संपोषण का सूचक हैं। आगमों में ताणं-सरणं शब्द प्रायः साथ-साथ ही आते हैं। प्रमाद-परिवर्जन ६५. इच्चेवं सुमतेि अहोविहाराए । अंतरं च खलु इमं संपेहाए धीरे मुहुत्तमवि णो पमादए । वओ अच्चेति जोव्वणं च । ६५. इस प्रकार चिन्तन करता हुआ मनुष्य संयम-साधना ( अहह्येविहार) के लिए प्रस्तुत (उद्यत) हो जाये। आचा० टीका पत्रांक ९२ स्थानांगसूत्र १० । सूत्र ७७२ (मुनि श्री कन्हैयालालजी संपादित ) 'च' ग्रहणा जहा जोव्वणं तहा बालातिवया वि- चूर्णि । 'च' शब्द से यौवन के समान बालवय का अर्थ ग्रहण करना चाहिए। १.. २. ३.
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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