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________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक: सूत्र ६४ चत्तारि एए कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणभवस्स १ - ये चारों कषाय पुनर्भव - जन्म-मरण की जड़ को सींचते हैं। टीकाकार ने 'मूल' शब्द से कई अभिप्राय स्पष्ट किए हैं तथा मोहनीय कर्म । २ इन सबका सार यही है कि शब्द आदि विषयों में आसक्त होना ही संसार की वृद्धि का / कर्म-बन्धन का कारण है। ३९ विषयासक्त पुरुष की मनोवृत्ति ममत्व-प्रधान रहती है। उसी का यहाँ निदर्शन कराया गया है। वह माता-पिता आदि सभी सम्बन्धियों व अपनी सम्पत्ति के साथ ममत्व का दृढ़ बंधन बांध लेता है। ममत्व से प्रमाद बढ़ता है । ममत्व और प्रमाद - ये दो भूत उसके सिर पर सवार हो जाते हैं, तब वह अपनी उद्दाम इच्छाओं की पूर्ति के लिए रात-दिन प्रयत्न करता है, हर प्रकार के अनुचित उपाय अपनाता है, जोड़-तोड़ करता है। चोर, हत्यारा और दुस्साहसी बन जाता है। उसकी वृति संरक्षक नहीं, आक्रामक बन जाती है । यह सब अनियंत्रित गुणार्थिता - विषयेच्छा का दुष्परिणाम है। -मूल- चार गतिरूप संसार । आठ प्रकार के कर्म अशरणता - परिबोध ६४. अप्पं च खलु आउं इहमेगेहिं माणवाणं । तं जहा- सोतपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं चक्खुपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं घाणपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं रसपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं फासपण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं । अभिकंतं च खलु वयं संपेहाए तओ से एगया मूढभावं जणयंति । जेहिं वा सद्धिं संवसति ते व णं एगया णियगा पुव्वि परिवदंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवदेज्जा । णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा । हसाए, ण किड्डाए, ण रतीए, ण विभूसाए । पुरुष ! वे समर्थ नहीं है। ६४. इस संसार में कुछ - एक मनुष्यों का आयुष्य अल्प होता है। जैसे- श्रोत्र - प्रज्ञान के परिहीन (सर्वथा दुर्बल) हो जाने पर, इसी प्रकार चक्षु प्रज्ञान के परिहीन होने पर, घ्राण- प्रज्ञान के परिहीन होने पर, रस- प्रज्ञान के परिहीन होने पर, स्पर्श प्रज्ञान के परिहीन होने पर ( वह अल्प आयु में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है) । वय - अवस्था / यौवन को तेजी से जाते हुए देखकर वह चिंताग्रस्त हो जाता है और फिर वह एकदा ( बुढ़ापा आने पर) मूढभाव को प्राप्त हो जाता है । वह जिनके साथ रहता है, वे स्वजन ( पत्नी - पुत्र आदि) कभी उसका तिरस्कार करने लगते हैं, उसे कटु व अपमानजनक वचन बोलते हैं। बाद में वह भी उन स्वजनों की निंदा करने लगता है। स्वजन तेरी रक्षा करने में या तुझे शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तू भी उन्हें त्राण या शरण देने में १. १. दशवैकालिक ८ । ४० आचा० शी० टीका, पत्रांक ९० । १
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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