SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - ३८ मे। आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध 'लोगविजयो' बीअं अज्झयणं पढमो उद्देसओ 'लोक विजय' : द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक संसार का मूल : आसक्ति ६३. जे गुणे से मूलट्ठाणे जे मूलट्ठाणे से गुणे। इति से गुणट्ठी महता परितावेणं वसे पमत्ते । तं जहा - माता मे, पिता मे, भाया मे, भगिणी मे, भजा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे, सहि-सयण-संगंथ-संधुता मे, 'विवित्तोवगरण-परियट्टण-भोयण-अच्छायणं . इच्चत्थं गढिए लोए वसे पमत्ते ।अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठायी संजोगट्ठी अट्ठालोभी आलुंपे सहसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो । ६३. जो गुण (इन्द्रियविषय) है, वह (कषायरूप संसार का) मूल स्थान है । जो मूल स्थान है, वह गुण है। इस प्रकार (आगे कथ्यमान) विषयार्थी पुरुष, महान् परिताप से प्रमत्त होकर, जीवन बिताता है। वह इस प्रकार मानता है - "मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है, मेरी पुत्री है, मेरी पुत्र-वधू है, मेरा सखा-स्वजन-सम्बन्धी-सहवासी है, मेरे विविध प्रचुर उपकरण (अश्व, रथ, आसन आदि) परिवर्तन (देने-लेने की सामग्री) भोजन तथा वस्त्र हैं।" इस प्रकार - मेरे पन (ममत्व) में आसक्त हुआ पुरुष, प्रमत्त होकर उनके साथ निवास करता है। वह प्रमत्त तथा आसक्त पुरुष रात-दिन परितप्त/चिन्ता एवं तृष्णा से आकुल रहता है। काल या अकाल में (समय-बेसमय/हर समय) प्रयत्नशील रहता है, वह संयोग का अर्थी होकर, अर्थ का लोभी बनकर लूटपाट करने वाला (चोर या डाकू) बन जाता है। सहसाकारी - दुःसाहसी और बिना विचारे कार्य करने वाला हो जाता है। विविध प्रकार की आशाओं में उसका चित्त फँसा रहता है। वह बार-बार शस्त्र-प्रयोग करता है। संहारक/आक्रामक . बन जाता है। विवेचन - सूत्र ४१ में 'गुण' को 'आवर्त' बताया है। यहाँ उसी संदर्भ में गुण को 'मूल स्थान' कहा है। पांच इन्द्रियों के विषय 'गुण' हैं । २ इष्ट विषय के प्रति राग और अनिष्ट विषय के प्रति द्वेष की भावना जाग्रत होती है। रागद्वेष की जागृति से कषाय की वृद्धि होती है। और बढ़े हुए कषाय ही जन्म-मरण के मूल को सींचते हैं । जैसा कहा १. चूण चूर्णि में 'विचित्तं' पाठ है, जिसका अर्थ किया है - 'प्रभूतं, अणेगप्रकारं विचित्रं च' टीकाकार ने 'विवित्तं' पाठ मानकर अर्थ किया है - विविक्तं शोभनं प्रचुरं वा ।-टीका पत्रांक ९१/१ आचा० शी टीका पत्रांक ८९
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy