SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र ५०-५२ दश प्रकार के प्राण युक्त होने से - प्राण है। तीनों काल के रहने के कारण - भूत है। आयुष्य कर्म के कारण जीता है - अतः जीव है। विविध पर्यायों का परिवर्तन होते हुए भी आत्म-द्रव्य की सत्ता में कोई अन्तर नहीं आता, अतः सत्त्व है। टीकाकार आचार्य शीलांक ने निम्न अर्थ भी किया है - . प्राणाः द्वित्रिचतुःप्रोक्ता भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पंचेन्द्रियाः प्रोक्ता शेषाः सत्त्वा उदीरिताः।' प्राण - द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव। भूत - वनस्पतिकायिक जीव। जीव - पांच इन्द्रियवाले जीव, - तिर्यंच, मनुष्य, देव, नारक। सत्त्व - पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु काय के जीव। त्रसकाय हिंसा निषेध . ५०. लजमाणा पुढो पास। 'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति । ५०. तू देख ! संयमी साधक जीव हिंसा में लज्जा/ग्लानि/संकोच का अनुभव करते हैं और उनको भी देख, जो 'हम गृहत्यागी हैं ' यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के उपकरणों से त्रसकाय का समारंभ करते हैं । त्रसकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्राणों की भी हिंसा करते हैं। ५१. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता - इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतु से सयमेव तसकायसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा तसकायसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति । तं से अहिताए, तं से अबोधीए । ५१. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा/विवेक का निरूपण किया है। कोई मनुष्य इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं भी त्रयकायिक जीवों क. हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है तथा हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी करता है। यह हिंसा उसके अहित के लिए होती है। अबोधि के लिए दोती है। त्रसकाय-हिंसा के विविध हेतु ५२. से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिंणातं भवति - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए । इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं तसकायकम्मसमारंभेणं तसकायसत्थं संभारंभमाणे आचा० शीलां० टीका पत्रांक ६४
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy