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________________ आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध विवेचन - इस सूत्र में त्रसकायिक जीवों के विषय में कथन है। आगमों में संसारी जीवों के दो भेद बताये गये हैं - स्थावर और त्रस। जो दुःख से अपनी रक्षा और सुख का आस्वाद करने के लिए हलन-चलन करने की क्षमता रखता हो, वह 'त्रस' जीव है। इसके विपरीत स्थिर रहने वाला 'स्थावर'। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के प्राणी 'स' होते हैं। एकमात्र स्पर्शनेन्द्रिय वाले स्थावर । उत्पत्ति-स्थान की दृष्टि से त्रय जीवों के आठ भेद किये गये हैं - १. अंडज - अंडों से उत्पन्न होने वाले - मयूर, कबूतर, हंस आदि। . २. पोतज - पोत अर्थात् चर्ममय थैली। पोत से उत्पन्न होने वाले पोतज - जैसे हाथी, वल्गुली आदि। ३. जरायुज - जरायु का अर्थ है गर्भ-वेष्टन या वह झिल्ली, जो जन्म के समय शिशु को आवृत किये रहती है। इसे 'जेर' भी कहते हैं। जरायु के साथ उत्पन्न होने वाले हैं जैसे - गाय, भैंस आदि।। ४. रसज - छाछ, दही आदि रस विकृत होने पर इनमें जो कृमि आदि उत्पन्न हो जाते हैं वे 'रसज' कहे जाते ५. संस्वेदज - पसीने से उत्पन्न होने वाले। जैसे - जूं, लीख आदि। ६. सम्मूच्छिम - बाहरी वातावरण के संयोग से उत्पन्न होने वाले, जैसे - मक्खी, मच्छर, चींटी, भ्रमर आदि। ७. उद्भिज - भूमि को फोड़कर निकलने वाले, जैसे-टीड़, पतंगे आदि। ८. औपपातिक - 'उपपात' का शाब्दिक अर्थ है सहसा घटने वाली घटना। आगम की दृष्टि से देवता शय्या में, नारक कुम्भी में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसलिए वे औपपातिक कहलाते हैं। इन आठ प्रकार के जीवों में प्रथम तीन 'गर्भज', चौथे से सातवें भेद तक 'सम्मूछिम' और देव-नारक औपपातिक हैं। ये 'सम्मूर्च्छनज, गर्भज, उपपातज' - इन तीन भेदों में समाहित हो जाते हैं । तत्त्वार्थ सूत्र (२/३२) में ये तीन भेद ही गिनाये हैं। इन जीवों को संसार कहने का अभिप्राय यह है कि - यह अष्टविध योनि-संग्रह ही जीवों के जन्म-मरण तथा गमनागमन का केन्द्र है। अत: इसे ही संसार समझना चाहिए। (१) मंदता, विवेक बुद्धि की अल्पता, तथा (२) अज्ञान। संसार में परिभ्रण अर्थात् जन्म-मरण के ये दो मुख्य कारण हैं । विवेक दृष्टि एवं ज्ञान जाग्रत होने पर मनुष्य संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। _ 'परिनिर्वाण' शब्द वैसे मोक्ष का वाचक है। 'निर्वाण' का शब्दार्थ है बुझ जाना। जैसे तेल के क्षय होने से दीपक बुझ जाता है, वैसे राग-द्वेष के क्षय होने से संसार (जन्म-मरण) समाप्त हो जाता है और आत्मा सब दुःखों से मुक्त होकर अनन्त सुखमय-स्वरूप प्राप्त कर लेता है। किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में परिनिर्वाण' का यह व्यापक अर्थ ग्रहण नहीं कर 'परिनिर्वाण' से सर्वविध सुख, अभय, दु:ख और पीड़ा का अभाव आदि अर्थ ग्रहण किया गया है । और बताया गया है कि प्रत्येक जीव सुख, शान्ति और अभय का आकांक्षी है । अशान्ति, भय, वेदना उनको महान भय व दुःखदायी होता है। अतः उनकी हिंसा न करे। प्राण, भूत, जीव, सत्त्व - ये चारों शब्द - सामान्यतः जीव के ही वाचक हैं। शब्दनय (समभिरूढ नय) की अपेक्षा से इनके अलग-अलग अर्थ भी किये गये हैं। जैसे भगवती सूत्र (२/१) में बताया है - १. आचा० शीलां० टीका पत्रांक ६४
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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