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________________ ३० अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति । से बेमि अप्पेगे अच्चाए वधेंति, अप्पेगे अजिणाए वधेति, अप्पेगे मंसाए वथेंति; अप्पेगे सोणिता वर्धेति, अप्पेगे हिययाए वधेंति एवं पित्ताए बसाए पिच्छाए पुच्छाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए नहाए हारुणीए अट्ठिए अट्ठिमिंजाए अट्ठाए अणट्टाए । अप्पेगे हिंसिंस मे त्ति वा, ,अप्पेगे हिंसंति वा अप्पेगे हिंसिस्संति वा णे वर्धेति । आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध - ५२. वह संयमी, उस हिंसा को / हिंसा के कुपरिणामों को सम्यक्प्रकार से समझते हुए संयम में तत्पर हो जावे । भगवान् से या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर कुछ मनुष्य यह जान लेते हैं कि यह हिंसा ग्रन्थि है, यह मृत्यु है, यह मोह है, यह नरक है। फिर भी मनुष्य इस हिंसा में आसक्त होता है। वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रसकायिक जीवों का समारंभ करता है। त्रसकाय का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों का भी समारंभ/हिंसा करता है। मैं कहता हूँ हैं। कुछ मनुष्य अर्चा (देवता की बलि या शरीर के शृंगार) के लिए जीवहिंसा करते हैं। कुछ मनुष्य चर्म लिए, मांस, रक्त, हृदय (कलेजा), पित्त, चर्बी, पंख, पूँछ, केश, सींग, विषाण (सुअर का दांत), दांत, दाढ़, नख, स्नायु, अस्थि (हड्डी) और अस्थिमज्जा के लिए प्राणियों की हिंसा करते हैं। कुछ किसी प्रयोजन-वश, कुछ निष्प्रयोजन / व्यर्थ ही जीवों का वधं करते हैं । कुछ व्यक्ति (इन्होंने मेरे स्वजनादि की) हिंसा की, इस कारण (प्रतिशोध की भावना से) हिंसा करते हैं। कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजन आदि की ) हिंसा करता है, इस कारण ( प्रतीकार की भावना से) हिंसा करते कुछ व्यक्ति (यह मेरे स्वजनादि की हिंसा करेगा) इस कारण (भावी आतंक / भय की संभावना से) हिंसा करते हैं। ५३. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति । एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति । ५३. जो सकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन आरंभ ( आरंभजनित कुपरिणामों) से अनजान ही रहता है। जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह इन आरंभों से सुपरिचित / मुक्त रहता है। ५४. तं परिण्णाय मेधावी णेव सयं तसकायसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णेहिं तसकायसत्थं समारंभावेजा, णेवऽण्णे तसकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा । ५४. यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं त्रसकाय-शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से समारंभ न करवाए, समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे ।
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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