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________________ .२० आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध गीता में शरीर को क्षेत्र व आत्मा को क्षेत्रज्ञ कहा है। बौद्ध ग्रन्थों में - क्षेत्रज्ञ का अर्थ 'कुशल' किया है। अशस्त्र शब्द 'संयम' के अर्थ में प्रयुक्त है। असंयम को भाव-शस्त्र बताया है २, अतः उसका विरोधी संयम - अशस्त्र अर्थात् जीव मात्र का रक्षक/बन्धु/मित्र है। प्रकारान्तर से इस कथन का भाव है - जो हिंसा को जानता है, वही अहिंसा को जानता है, जो अहिंसा को जानता है वही हिंसा को भी जानता है। अग्निकायिक-जीव-हिंसा-निषेध ३३. वीरेहि एयं अभिभूय दिलृ संजतेहि सया जतेहिं सदा अप्पमत्तेहिं । जे पमत्ते गुणट्ठिते से हु दंडे पवुच्चति । तं परिण्णाय मेहावी इदाणी णो जमहं पुव्वमकासी पमादेणं । ३३. वीरों (आत्मज्ञानियों) ने, ज्ञान-दर्शनावरण आदि कर्मों को विजय कर/नष्ट कर यह (संयम का पूर्ण स्वरूप) देखा है। वे वीर संयमी, सदा यतनाशील और सदा अप्रमत्त रहने वाले थे। . जो प्रमत्त है, गुणों (अग्नि के राँधना-पकाना आदि गुणों) का अर्थी है, वह दण्ड/हिंसक कहलाता है। यह जानकर मेधावी पुरुष (संकल्प करे) - अब मैं वह (हिंसा नहीं करूंगा, जो मैंने प्रमाद के वश होकर पहले किया था। विवेचन - इस सूत्र में वीर आदि विशेषण सम्पूर्ण आत्म-ज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त करने की प्रक्रिया के सूचक वीर - पराक्रमी-साधना में आने वाले समस्त विघ्नों पर विजय पाना। संयम - इन्द्रिय और मन को विवेक द्वारा निगृहीत करना। यम - क्रोध आदि कषायों की विजय करना। अप्रमत्तता - स्व-रूप की स्मृति रखना। सदा जागरूक और विषयोन्मुखी प्रवृत्तियों से विमुख रहना। इस प्रक्रिया द्वारा (आत्म-दर्शन) केवलज्ञान प्राप्त होता है। उन केवली भगवान् ने जीव हिंसा के स्वरूप को देखकर अ-शस्त्र - संयम का उपदेश किया है। मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा - ये पाँच प्रमाद हैं। मनुष्य जब इनमें आसक्त होता है तभी वह अग्नि के गुणों/उपयोगों - रांधना, मकाना, प्रकाश, ताप आदि की वांछा करता है और तब वह स्वयं जीवों का दण्ड (हिंसक) बन जाता है। हिंसा के स्वरूप का ज्ञान होने पर बुद्धिमान मनुष्य उसको त्यागने का संकल्प करता है। मन में दृढ़ निश्चय कर अहिंसा की साधना पर बढ़ता है और पूर्व-कृत हिंसा आदि के लिए पश्चात्ताप करता है - यह सूत्र के अन्तिम पद में बताया है। १. २.. ३. गीता १३।१-२ । अंगुत्तरनिकाय, नवक निपात, चतुर्थ भाग- पृ०५७ भावे य असंजमो सत्थं - नियुक्ति गाथा ९६
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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