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प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक.: सूत्र ३४-३७
३४. लज्जमाणा पुढो पास ।
'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
३५. तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता - इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जाती-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं से सयमेव अगणिसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा अगणिसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा अगणिसत्थं समारंभमाणे समणु जाणति ।
तं से अहिताए, तं से अबोधीए । ३६. से त्तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए ।
सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं भवति - एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए।
इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति ।
३७. से बेमि - संति पाणा पुढविणिस्सिता तणणिस्सिता पत्तणिस्सिता कट्ठणिस्सिता गोमयणिस्सिता कयवरणिस्सिता ।
संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति य ।
अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघातमावर्जति । जे तत्थ संघातमावर्जति ते तत्थ परियावजंति। जे तत्थ परियावजंति ते तत्थ उद्दायति ।
३४. तू देख ! संयमी पुरुष जीव-हिंसा में लज्जा/ग्लानि/संकोच का अनुभव करते हैं।
और उनको भी देख, जो हम 'अनगार - गृहत्यागी साधु हैं' - यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के शस्त्रों/ उपकरणों से अग्निकाय की हिंसा करते हैं। अग्निकाय के जीवों की हिंसा करते हुए अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। ___३५. इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा/विवेक-ज्ञान का निरूपण किया है। कुछ मनुष्य इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सन्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के निमित्त, तथा दुःखों का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं अग्निकाय का समारंभ करते हैं। दूसरों से अग्निकाय का समारंभ करवाते हैं । अग्निकाय का समारंभ करने वालों (दूसरों) का अनुमोदन करते हैं।
यह (हिंसा) उनके अहित के लिए होती है । यह उनकी अबोधि के लिए होती है। ३६. वह (साधक) उसे (हिंसा के परिणाम को) भली भांति समझे और संयम-साधना में तत्पर हो जाये।
तीर्थंकर आदि प्रत्यक्ष ज्ञानी अथवा श्रुत-ज्ञानी मुनियों के निकट से सुनकर कुछ मनष्यों को यह ज्ञात हो जाता है कि यह जीव-हिंसा - ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।