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प्रथम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र ३२ अपलाप करता है, वह अपने आप का अपलाप करता है। जो अपने आप का अपलाप करता है वह लोक का अलाप करता है।
जो दीर्घलोकशस्त्र (अग्निकाय) के स्वरूप को जानता है, वह अशस्त्र (संयम) का स्वरूप भी जानता है। जो संयम का स्वरूप जानता है वह दीर्घलोक-शस्त्र का स्वरूप भी जानता है।
विवेचन - यहाँ प्रसंगानुसार 'लोक' शब्द अग्निकाय का बोधक है । तत्कालीन धर्म-परम्पराओं में जल को, तथा अग्नि को देवता मानकर पूजा तो जाता था, किन्तु उनकी हिंसा के सम्बन्ध में कोई विचार नहीं किया गया था। जल से शुद्धि और पंचाग्नि तप आदि से सिद्धि मानकर इनका खुल्लमखुल्ला प्रयोग/उपयोग किया जाता था। भगवान् महावीर ने अहिंसा की दृष्टि से इन दोनों को सजीव मानकर उनकी हिंसा का निषेध किया है।
टीकाकार आचार्य शीलांक ने कहा है - अग्नि की सजीवता तो स्वयं ही सिद्ध है। उसमें प्रकाश व उष्णता का गुण है, जो सचेतन में होते हैं । तथा अग्नि वायु के बिना जीवित नहीं रह सकती। स्नेह, काष्ठ आदि का आहार लेकर बढ़ती है, आहार के अभाव में घटती है - यह सब उसकी सजीवता के स्पष्ट लक्षण हैं।
किसी सचेतन की सचेतनता अस्वीकार करना अर्थात् उसे अजीव मानना अभ्याख्यान दोष है, अर्थात् उसकी सत्ता पर झूठा दोषारोपण करना है तथा दूसरे की सत्ता का अस्वीकार अपनी आत्मा का ही अस्वीकार है। ___'दीर्घलोकशस्त्र' शब्द द्वारा अग्निकाय का कथन करना विशेष उद्देश्यपूर्ण है। दीर्घलोक का अर्थ है - वनस्पति । पांच स्थावर एकेन्द्रिय जीवों में चार की अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग है, जबकि वनस्पति की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन से भी अधिक है। वनस्पति का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक है। इसलिए वनस्पति को आगमों में 'दीर्घलोक' कहा है। अग्नि उसका शस्त्र है।
दीर्घलोकशस्त्र - इसका एक अर्थ यह भी है कि अग्नि सबसे तीक्ष्ण और प्रचंड शस्त्र है। उत्तराध्ययन में कहा
नत्थि जोइसमे सत्थे तम्हा जोइं न दीवए-३५ । १२ - अग्नि के समान अन्य कोई तीक्ष्ण शस्त्र नहीं है। बड़े-बड़े विशाल बीहड़ वनों को यह कुछ क्षणों में ही भस्मसात् कर देती है। अग्नि बडवानल के रूप में समुद्र में भी छिपी रहती है।
'खेयण्णे' शब्द के संस्कृत में दो रूप होते हैं - 'क्षेत्रज्ञ' - निपुण । अथवा क्षेत्र - शरीर किंचा आत्मा, उसके स्वरूप को जानने वाला - क्षेत्रज्ञ।
खेदज्ञ - जीव मात्र के दुःख को जानने वाला। कहीं-कहीं क्षेत्रज्ञ का गीतार्थ - आचार व प्रायश्चित विधि का ज्ञाता अर्थ भी किया है । भगवान् महावीर का 'खेयन्नए'५ विशेषण बताकर इसका अर्थ लोकालोक स्वरूप के ज्ञाता व प्रत्येक आत्मा के खेद/सुख-दुःख तथा उसके मूल कारणों के ज्ञाता, ऐसा अर्थ भी किया गया है। १. न विणा वाउणाएणं अगणिकाए उज्जलति - भगवती श० १६ । उ० १। सूत्र (अंगसुत्ताणि) २. प्रज्ञापना, अवगाहना पद। ३. ओघनियुक्ति (अभि० राजेन्द्र 'खेयने' शब्द)।
धर्म संग्रह अधिकार (अभि० राजेन्द्र 'खेयन्ने' शब्द)। ५. खेयन्नए से कुसले महेसी- सूत्रकृतांग १।६