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आचारांग सूत्र / प्रथम श्रुतस्कन्ध
शैवों का कथन है)।
'हम पीने तथा नहाने (विभूषा) के लिए भी जल का प्रयोग कर सकते हैं।' (यह बौद्ध श्रमणों का मत है) इस तरह अपने शास्त्र का प्रमाण देकर या नानाप्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा करते हैं।
२८. अपने शास्त्र का प्रमाणं देकर जलकाय की हिंसा करने वाले साधु, हिंसा के पाप से विरत नहीं हो सकते। अर्थात् उनका हिंसा न करने का संकल्प परिपूर्ण नहीं हो सकता ।
२९. जो यहाँ, शस्त्र - प्रयोग कर जलकाय के जीवों का समारम्भ करता है, वह इन आरंभों (जीवों की वेदना व हिंसा के कुपरिणाम) से अनभिज्ञ है। अर्थात् हिंसा करने वाला कितने ही शास्त्रों का प्रमाण दे, वास्तव में वह अज्ञानी ही है।
जो जलकायिक जीवों पर शस्त्र प्रयोग नहीं करता, वह आरंभों का ज्ञाता है, वह हिंसा - दोष से मुक्त होता है । अर्थात् वह ज्ञ-परिज्ञा से हिंसा को जानकर प्रत्याख्यान- परिज्ञा से उसे त्याग देता है ।
३०.
. बुद्धिमान मनुष्य यह (उक्त कथन) जानकर स्वयं जलकाय का समारंभ न करे, दूसरों से न करवाए, और उसका समारंभ करने वालों का अनुमोदन न करे ।
.
३१. जिसको जल-सम्बन्धी समारंभ का ज्ञान होता है, वही परिज्ञातकर्मा ( मुनि) होता है।'
- ऐसा मैं कहता हूँ ।
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
चउत्थो उद्देसओ
चतुर्थ उद्देशक
अग्निकाय की सजीवता
३२. से बेमि - णेव सयं लोगं अब्भाइक्खेज्जा, णेव अत्ताणं अब्भाइंक्खेज्जा ।
जे लोगं अब्भाइक्खति से अत्ताणं अब्भाइक्खति ।
जे अत्ताणं अब्भाइक्खति से लोगं अब्भाइक्खति ।
जे दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे से असत्थस्स खेयण्णे ।
जे असत्थस्स खेयण्णे से दीहलोगसत्थस्स खेयण्णे ।
३२. मैं कहता हूँ .
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वह (जिज्ञासु साधक) कभी भी स्वयं लोक (अग्निकाय) के अस्तित्व का, अर्थात् उसकी सजीवता का अपलाप (निषेध) न करे। न अपनी आत्मा के अस्तित्व का अपलाप करे। क्योंकि जो लोकं (अग्निकाय) का