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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
विवेचन - पिछले सूत्रों में पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा का निषेध किया गया है। पृथ्वीकायिक जीवों में चेतना अव्यक्त होती है। उनमें हलन-चलन आदि क्रियाएँ भी स्पष्ट दीखती नहीं, अतः यह शंका होना स्वाभाविक है कि पृथ्वीकायिक जीव न चलता है, न बोलता है, न देखता है, न सुनता है, फिर कैसे माना जाय कि वह जीव है ? उसे भेदन-छेदन करने से कष्ट का अनुभव होता है।
इस शंका के समाधान हेतु सूत्रकार ने तीन दृष्टान्त देकर पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना का बोध तथा अनुभूति कराने का प्रयत्न किया है।
प्रथम दृष्टान्त में बताया है - कोई मनुष्य जन्म से अंधा, बधिर, मूक या पंगु है। कोई पुरुष उसका छेदनभेद्गन करे तो वह उस पीड़ा को न तो वाणी से व्यक्त कर सकता है, न त्रस्त होकर चल सकता है, न अन्य चेष्टा से पीड़ा को प्रकट कर सकता है। तो क्या यह मान लिया जाय कि वह जीव नहीं है, या उसे छेदन-भेदन करने से पीड़ा नहीं होती है ?
जैसे वह जन्मान्ध व्यक्ति वाणी, चक्षु, गति आदि के अभाव में भी पीड़ा का अनुभव करता है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव इन्द्रिय-विकल अवस्था में पीड़ा की अनुभूति करते हैं।
दूसरे दृष्टान्त में किसी स्वस्थ मनुष्य की उपमा से बताया है, जैसे उसके पैर, आदि बत्तीस अवयवों का एक साथ छेदन-भेदन करते हैं, उस समय वह मनुष्य न भली प्रकार देख सकता है, न सुन सकता है, न बोल सकता है, न चल सकता है, किन्तु इससे यह तो नहीं माना जा सकता कि उसमें चेतना नहीं है या उसे कष्ट नहीं हो रहा है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव में व्यक्त चेतना का अभाव होने पर भी उसमें प्राणों का स्पन्दन है; अनुभव-चेतना विद्यमान है, अतः उसे भी कष्टानुभूति होती है।
तीसरे दृष्टान्त में मूछित मनुष्य के साथ तुलना करते हुए बताया है कि जैसे मूछित मनुष्य की चेतना बाहर में लुप्त होती है, किन्तु उसकी अन्तरंग चेतना - अनुभूति लुप्त नहीं होती, उसी प्रकार स्त्यानगृद्धिनिद्रा के सतत उदय से पृथ्वीकायिक जीवों की चेतना मूछित व अव्यक्त रहती है। पर वे आन्तर चेतना से शून्य नहीं होते।
उक्त तीनों उदाहरण पृथ्वीकायिक जीवों की सचेतनता तथा मनुष्य शरीर के समान पीड़ा की अनुभूति स्पष्ट करते हैं।
भगवती सूत्र (श० १९ उ० ३५) में बताया है - जैसे कोई तरुण और बलिष्ठ पुरुष किसी जरा-जीर्ण पुरुष के सिर पर दोनों हाथों से प्रहार करके उसे आहत करता है, तब वह जैसी अनिष्ट वेदना का अनुभव करता है, उससे भी अनिष्टतर वेदना का अनुभव पृथ्वीकायिक जीवों को आक्रान्त होने पर होता है।
१६. एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति । एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति।
१७. तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं पुढविसत्थं समारंभेजा, णेवण्णेहिं, पुढविसत्थं समारंभावेजा, णेवऽण्णे - पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा। १८. जस्सेते पुढविकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि ।
॥बिइओ उद्देसओ समत्तो ॥