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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध आस्रव-संवर-बोध
४. अकरिस्सं च हं, काराविस्सं च हं, करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि। ५. एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति । ४. (वह आत्मवादी मनुष्य यह जानता/मानता है कि) - मैंने क्रिया की थी। मैं क्रिया करवाता हूँ। मैं क्रिया करने वाले का भी अनुमोदन करूंगा।
५. लोक-संसार में ये सब क्रियाएँ/ कर्म-समारंभ-(हिंसा की हेतुभूत) हैं, अत: ये सब जानने तथा त्यागने योग्य हैं।
विवेचन - चतुर्थ सूत्र में क्रिया के भेद-प्रभेद का दिग्दर्शन कराया गया है। क्रिया कर्मबन्ध का कारण है, कर्म से आत्मा संसार में परिभ्रमण करता है। अतः संसार-भ्रमण से मुक्ति पाने के लिए क्रिया का स्वरूप जानना और उसका त्याग करना नितांत आवश्यक है।
__ मैंने क्रिया की थी, इस पद में अतीतकाल के नौ भेदों का संकलन किया है -जैसे, क्रिया की थी, करवाई थी, करते हुए का अनुमोदन किया था, मन से, वचन से, कर्म से। ३.४ ३ = ९ ।
इसी प्रकार वर्तमानपद 'करवाता हूँ' में भी करता हूँ, करवाता हूँ, करते हुए का अनुमोदन करता हूँ, तथा भविष्यपद क्रिया करूँगा, करवाऊँगा, करते हुए का अनुमोदन करूँगा, मन से, वचन से, कर्म से, ये नव-नव भंग बनाये जा सकते हैं । इस प्रकार तीन काल के, क्रिया के २७ विकल्प हो जाते हैं । ये २७ विकल्प ही कर्म-समारंभ/ हिंसा के निमित्त हैं, इन्हें सम्यक् प्रकार से जान लेने पर क्रिया का स्वरूप जान लिया जाता है।
क्रिया का स्वरूप जान लेने पर ही उसका त्याग किया जा सकता है। क्रिया संसार का कारण है, और अक्रिया मोक्ष का। अकिरिया सिद्धी-आगम-वचन का भाव यही है कि क्रिया/आश्रव का निरोध होने पर ही मोक्ष होता है।
६. अपरिण्णायकम्मे खलु अयं पुरिसे जो इमाओ दिसाओ वा अणुदिसाओ वा अणु-संचरित, सव्वाओ दिसाओ सव्वाओ अणुदिसाओ सहेति, अणेगरूवाओ जोणीओ संधेति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदयति।
७. तस्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता। इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं।
६. यह पुरुष, जो अपरिज्ञातकर्मा है (क्रिया के स्वरूप से अनभिज्ञ है, इसलिए उसका अत्यागी है) वह इन दिशाओं व अनुदिशाओं में अनुसंचरण / परिभ्रमण करता है। अपने कृत-कर्मों के साथ सब दिशाओं/अनुदिशाओं में जाता है। अनेक प्रकार की जीव-योनियों को प्राप्त होता है। वहां विविध प्रकार के स्पर्शो (सुख-दुख के आघातों) का अनुभव करता है।
आचारांग शीलांक टीका पत्रांक २१ २. भगवती सूत्र २।५ सूत्र १११ (अंगसुत्ताणि)।
चूर्णि में-भोयणाए-पाठान्तर भी है, जिसका भाव है, जन्म-मरण सम्बन्धी भोजन के लिए। आगमों में 'स्पर्श' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। साधारणत: त्वचा-इन्द्रियग्राह्य सुख-दुःखात्मक संवेदन/ अनुभूति को स्पर्श कहा गया है, किन्तु प्रसंगानुसार इससे भिन्न-भिन्न भावों की सूचना भी दी गई है। जैसे-सूत्रकृतांग (१।३।१।१७) म