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प्रथम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र २-३
२. कोई प्राणी अपनी स्वमति - पूर्वजन्म की स्मृति होने पर स्व-बुद्धि से, अथवा तीर्थंकर आदि प्रत्यक्षज्ञानियों के वचन से, अथवा अन्य विशिष्ट श्रुतज्ञानी के निकट में उपदेश सुनकर यह जान लेता है, कि मैं पूर्वदिशा से आया हूँ, या दक्षिण दिशा, पश्चिमदिशा, उत्तरदिशा, ऊर्ध्वदिशा या अधोदिशा अथवा अन्य किसी दिशा या विदिशा से आया
कुछ प्राणियों को यह भी ज्ञात होता है - मेरी आत्मा भवान्तर में अनुसंचरण करने वाली है, जो इन दिशाओं, अनुदिशाओं में कर्मानुसार परिभ्रमण करती है । जो इन सब दिशाओं और विदिशाओं में गमनागमन करती है, वही मैं (आत्मा) हूँ।
३. (जो उस गमनागमन करने वाली परिणामी नित्य आत्मा को जान लेता है) वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है।
विवेचन - उक्त दो सूत्रों में चर्मचक्षु से परोक्ष आत्मतत्त्व को जानने के तीन साधन बताये हैं - १. पूर्वजन्म की स्मृतिरूप जाति-स्मरणज्ञान तथा अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान होने पर, स्व-मति से, २. तीर्थंकर, केवली आदि का प्रवचन सुनकर, ३. तीर्थंकरों के प्रवचनानुसार उपदेश करने वाले विशिष्ट ज्ञानी के निकट में उपदेश आदि सुनकर।'
उक्त कारणों में से किसी से भी पूर्व-जन्म का बोध हो सकता है। जिस कारण उसका ज्ञान निश्चयात्मक हो जाता है कि इन पूर्व आदि दिशाओं में जो गमनागमन करती है, वह आत्मा 'मैं' ही हूँ।
प्रथम सूत्र में "के अहं आसी?" मैं कौन था - यह पद आत्मसम्बन्धी जिज्ञासा की जागृति का सूचक है। और द्वितीय सूत्र में "सो हं""वह मैं हूँ" यह पद उस जिज्ञासा का समाधान है-आत्मवादी आस्था की स्थिति है।
परिणामी एवं शाश्वत आत्मा में विश्वास होने पर ही मनुष्य आत्मवादी होता है। आत्मा को मानने वाला लोक (संसार) स्थिति को भी स्वीकार करता है, क्योंकि आत्मा का भवान्तर-संचरण लोक में ही होता है। लोक में आत्मा का परिभ्रमण कर्म के कारण होता है, इसलिए लोक को मानने वाला कर्म को भी मानेगा तथा कर्मबन्ध का कारण है - क्रिया, अर्थात् शुभाशुभ योगों की प्रवृत्ति । इस प्रकार आत्मा का सम्यक् परिज्ञान हो जाने पर लोक का, कर्म का, किया का परिज्ञान भी हो जाता है। अतः वह आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी भी है।
आगे के सूत्रों में हिंसा-अहिंसा का विवेचन किया जायेगा। अहिंसा का आधार आत्मा है। आत्म-बोध होने पर ही अहिंसा व संयम की साधना हो सकती है। अत: अहिंसा की पृष्ठभूमि के रूप में यहाँ आत्मा का वर्णन किया गया है।
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आचा० शीलांकवृत्ति पत्रांक १८ कुछ विद्वानों ने आगमगत 'सो हं' पद की तुलना में उपनिषदों में स्थान-स्थान पर आये 'सोऽहं' शब्द को उद्धृत किया है। हमारे विचार में इन दोनों में शाब्दिक समानता होते हुए भी भाव की दृष्टि से कोई समानता नहीं है। आगमगत 'सो हं' शब्द में भवान्तर में अनुसंचरण करने वाली आत्मा की प्रतीति करायी गई है, जबकि उपनिपद्-गत 'सोऽहं' शब्द में आत्मा की परमात्मा के साथ सम-अनुभूति दर्शायी गई है। जैसे-'सोहमस्मि,स एवाहमस्मि'
- छा०उ० ४ । ११ । १ । आदि।