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नवम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र ३१०-३१९
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३१४. णच्चाण से महावीरे णो वि य पावगं सयमकासी । . अण्णेहिं वि ण कारित्था कीरंतं पिणाणुजाणित्था ॥१०१॥ ३१५. गामं पविस्स णगर वा घासमेसे २ कडं परट्ठाए ।
सुविसुद्धमेसिया ३ भगवं आयतजोगताए सेविस्था ॥ १०२॥ ३१६. अदु वायसा दिगिंछत्ता जे अण्णे रसेसिणो सत्ता ।
घासेसणाए चिटुंते सययं ५ णिवतिते य पेहाए ॥ १०३॥ ३१७. अदु माहणं व समणं वा गामपिंडोलगं च अतिहिं वा ।
सोवाग मूसियारि वा कुक्कुरं वा वि विहितं पुरतो ॥१०४॥ ३१८. वित्तिच्छेदं वजेंतो तेसऽप्पंत्तियं परिहरंतो ।
मंदं परक्कमे भगवं अहिंसमाणो घासमेसित्था ॥ १०५॥ ३१९. अवि सूइयं व सुक्कं वा — सीयपिंडं पुराणकुम्मासं ।
अदु बक्कसं पुलागं वा लद्धे पिंडे अलद्धए दविए ॥ १०६॥ ३१०. भगवान् ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते थे। उकडू आसन से सूर्य के ताप के सामने मुख करके बैठते थे। और वे प्रायः रूखे आहार को दो - कोद्रव व बेर आदि का चूर्ण, तथा उड़द आदि से शरीर-निर्वाह करते थे ॥९७ ॥
३११. भगवान् ने इन तीनों का सेवन करके आठ मास तक जीवन यापन किया। कभी-कभी भगवान् ने अर्ध मास (पक्ष) या मास भर तक पानी नहीं पिया ॥९८॥
३१२. उन्होंने कभी-कभी दो महीने से अधिक तथा छह महीने तक भी पानी नहीं पिया। वे रातभर जागृत रहते, किन्तु मन में नींद लेने का संकल्प नहीं होता था। कभी-कभी वे बासी (रस-अविकृत) भोजन भी करते थे
॥९९॥ १. इसके बदले चूर्णि में पाठान्तर है - 'अएणेहिं ण कारित्था, कीरमाणं पि नाणुमोतित्था', अर्थात् - दूसरों से पाप नहीं कराते
थे, पाप करते हुए या करने वाले का अनुमोदन नहीं करते थे। इसके बदले पाठान्तर है - 'घासमेसे करं परवाए, "घासमातं कडं परट्टाए' (चूर्णि) चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर का अर्थ - "घासमाहारं अद भक्खणे"- अर्थात् - भगवान् दूसरों (गृहस्थों) के लिए बनाए हुए आहार का सेवन करते थे। चूर्णि में पाठान्तर है - 'सुविसुद्धं एसिया भगवं आयतजोगता गवेसित्था' - भगवान् आहार की सुविशुद्ध एषणा करते थे, तथा आयतयोगता की अन्वेषणा करते थे। 'विगिंछत्ता' का अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में - दिगिंछा छुहा ताए अत्ता तिसिया वा। अर्थात् दिगिंछा क्षुधा का नाम है, उससे आर्त्त - पीड़ित अथवा तृषित - प्यासे। 'समयं णिवतिते' के बदले पाठान्तर है - 'संथरे (डे) णिवतिते' अर्थ चूर्णिकार ने किया है - संथडा- सततं संणिवतिया -निरन्तर बैठे देखकर ।
इसके बदले 'वा विद्वितं' पाठान्तर स्वीकार करके चूर्णिकार ने अर्थ किया है - विद्वितं उपविष्टमित्यर्थः। अर्थात् - बैठे हुए। ७. इसके बदले 'तेस्सऽपत्तियं','तेसि अपत्तियं' पाठान्तर मिलते हैं। ८. चूर्णिकार इसके बदले 'अवि सूचितं वा सुक्कं वा...' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं - "सूचितं णाम कुसणितं" - अर्थात् -
सूचितं का अर्थ है - दही के साथ भात मिलाकर करबा बनाया हुआ। वृत्तिकार शीलांकाचार्य 'सूइयं' पाठ मानकर अर्थ करते हैं - सूइयं ति दध्यादिना भक्तमार्दीकृतमपि।" अर्थात् दही आदि से भात को गीला करके भी...।
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