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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध ३१३. वे कभी बेले (दो दिन के उपवास) के अनन्तर, कभी तेले (अट्ठम), कभी चौले (दशम) और कभी पंचौले (द्वादश) के अनन्तर भोजन (पारणा) करते थे। भोजन के प्रति प्रतिज्ञा रहित (आग्रह-मुक्त) होकर वे (तप) समाधि का प्रेक्षण (पर्यालोचन) करते थे ॥१००॥ .
३१४. वे भगवान् महावीर (आहार के दोषों को) जानकर स्वयं पाप (आरम्भ-समारंभ) नहीं करते थे, दूसरों से भी पाप नहीं करवाते थे और न पाप करने वालों का अनुमोदन करते थे ॥ १०१॥
३१५. भगवान् ग्राम या नगर में प्रवेश करके दूसरे (गृहस्थों) के लिए बने हुए भोजन की एषणा करते थे। सुविशुद्ध आहार ग्रहण करके भगवान् आयतयोग (संयत-विधि) से उसका सेवन करते थे ॥१०२॥
३१६-३१७-३१८. भिक्षाटन के समय, रास्ते में क्षुधा से पीड़ित कौओं तथा पानी पीने के लिए आतुर अन्य प्राणियों को लगातार बैठे हुए देखकर अथवा ब्राह्मण, श्रमण, गाँव के भिखारी या अतिथि, चाण्डाल, बिल्ली या कुत्ते को आगे मार्ग में बैठा देखकर उनकी आजीविका विच्छेद न हो, तथा उनके मन में अप्रति (द्वेष) या अप्रतीति (भय) उत्पन्न न हो, इसे ध्यान में रखकर भगवान् धीरे-धीरे चलते थे किसी को जरा-सा भी त्रास न हो, इसलिए हिंसा न करते हुए आहार की गवेषणा करते थे ॥१०३-१०४-१०५॥
३१९. भोजन व्यंजनसहित हो या व्यंजनरहित सूखा हो, अथवा ठंडा-बासी हो, या पुराना (कई दिनों का पकाया हुआ) उड़द हो, पुराने धान का ओदन हो या पुराना सत्तु हो, या जौ से बना हुआ आहार हो, पर्याप्त एवं अच्छे आहार के मिलने या न मिलने पर इन सब स्थितियों में संयमनिष्ठ भगवान् राग-द्वेष नहीं करते थे ॥१०६॥ ध्यान-साधना ३२०. अवि झाति से महावीरे आसणत्थे अकुक्कुए झाणं ।
उड्डूं। अहे य तिरियं च पेहमाणे समाहिमपडिण्णे ॥१०७॥ ३२१. अकसायी विगतगेही य सद्द-रूवेसुऽमुच्छिते २ झाती ।
छउमत्थे ' विप्परक्कममाणे ण पमायं सई पि कुव्वित्था ॥१०८॥ ३२२. सयमेव अभिसमागम्म आयतजोगमायसोहीए ।
अभिणिबुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं समितासी ॥१०९॥ ३२३. एस विही अणुक्कतो माहणेण मतीमता । बहुसो अपडिण्णेणं भगवया, एवं रीयंति ॥११०॥त्ति बेमि।
॥ चउत्थो उद्देसओ सम्मत्तो ॥ १. 'उई अहे य तिरियं च' के आगे चूर्णिकार ने 'लोए झायती (पेहमाणे) पाठान्तर माना है। अर्थ होता है - ऊर्ध्वलोक,
अधोलोक और तिर्यक्लोक का (प्रेक्षण करते हुए) ध्यान करते थे। २. इसका अर्थ चूर्णिकार यों करते हैं - 'सद्दादिएहिं य अमुच्छितो झाती झायति - अर्थात् - शब्दादि विषयों में अमूर्छित
अनासक्त होकर भगवान् ध्यान करते थे। चूर्णिकार ने इसके बदले 'छउमत्थे विप्परक्कम्मा ण पमायं...' पाठान्तर मान्य करके व्याख्या की है - "छउमत्थकाले विहरंतेण भगवता जयंतेण घटतेण परकंतेण ण कयाइ पमातो कयतो। अविसद्दा णवरि एक्कसिं एक्कं अंतोमुहत्तं अट्ठियगामे।" छद्मस्थकाल में यतनापूर्वक विहार करते हुए या अन्य संयम सम्बन्धी क्रियाओं में कभी प्रमाद नहीं किया था। अपि शब्द से एक दिन एक अन्तमुहूर्त तक अस्थिकग्राम में (निद्रा) प्रमाद किया था।