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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध चिकित्सा में अरुचि - रोग दो प्रकार के होते हैं - वातादि के क्षुब्ध होने से उत्पन्न तथा आगन्तुक । साधारण मनुष्यों की तरह भगवान् के शरीर में वातादि से उत्पन्न खांसी, दमा, पेट-दर्द आदि कोई देहज रोग नहीं होते, शस्त्रप्रहारादि से जनित आगन्तुक रोग हो सकते हैं, परन्तु वे दोनों ही प्रकार के रोगों की चिकित्सा के प्रति उदासीन थे। अनार्य देश में कुत्तों के काटने, मनुष्यों के द्वारा पीटने आदि से आगन्तुक रोगों के शमन के लिए भी वे द्रव्यौषधि का उपयोग नहीं करना चाहते थे।' ___ हाँ, असातावेदनीय आदि कर्मों के उदय से निष्पन्न भाव-रोगों की चिकित्सा में उनका दृढ़ विश्वास था।
शरीर-परिकर्म से विरत - दीक्षा लेते ही भगवान् ने शरीर के व्युत्सर्ग का संकल्प कर लिया था, तदनुसार वे शरीर की सेवा-शुश्रूषा, मंडन, विभूषा, साज-सज्जा, सार-संभाल आदि से मुक्त रहते थे, वे आत्मा के लिए समर्पित हो गए थे, इसलिए शरीर को एक तरह से विस्मृत करके साधना में लीन रहते थे। यही कारण है कि वमन, विरेचन, मर्दन आदि से वे बिलकुल उदासीन थे, शब्दादि विषयों से भी वे विरक्त रहते थे, मन, वचन, काया की प्रवृत्तियाँ भी वे अति अल्प करते थे। तप एवं आहारचर्या ३१०. आयावइ ३ य गिम्हाणं अच्छति उक्कुडए अभितावे ।
अदु जावइत्थ .लूहेणं ओयण-मंथु-कुम्मासेणं ॥ ९७॥ ३११. एताणि तिण्णि पडिसेवे अट्ठ मासे अ जावए भगवं ।।
अपिइत्थ एगदा भगवं अद्धमासं अदुवा मासं पि ॥ ९८॥ ३१२. अवि साहिए दुवे मासे छप्पि मासे अदुवा अपिवित्था ।
राओवरातं अपडिण्णे अण्णगिलायमेगता ५ भुंजे ॥ ९९॥ ३१३. छटेण एगया भुंजे अदुवा अट्ठमण दसमेण ।
दुवालसमेण एगदा भुंजे पेहमाणे समाहिं अपडिण्णे ॥१००॥
आचा० शीला० टीका पत्र ३१२ आचा० शीला० टीका पत्रांक ३१२-३१३ चूर्णिकार ने इसके बदले - 'आयावयति गिम्हासु उक्कुडुयासणेण अभिमुहवाते' - उण्हे रुक्खे य वायते।" अर्थात्-ग्रीष्मऋतु में उकडू आसन से बैठकर भगवान् गर्म लू या रूखी जैसी भी हवा होती, उसके अभिमुख होकर आतापना लेते थे। इसके बदले 'अपिवित्थ','पिवत्थ', 'अप्प विहरित्थ', 'अपवित्ता','अपि विहरित्था' आदि पाठान्तर मिलते हैं। इनका अर्थ क्रमशः यों है - नहीं पिया, पिया, अल्प विहार किया, अल्पाहारी रहे, बिना पिये विहार किया। इसके बदले 'अण्ण (ण्णं) गिलागमे', 'अण्णेगिलाणमे','अन्नइलायमे', 'अग्न इलात', 'एगता भुंजे', 'अन्नगिलायं' आदि पाठान्तर मिलते हैं। चूर्णिकार ने "अन्न इलात एगता भुंजे" पाठान्तर मानकर अर्थ किया है - 'अन्नमेव गिलाणं अन्नगिलाणं दोसीणं' - अर्थात् जो अन्न ही ग्लान - सत्त्वहीन, बासी और नीरस हो गया है, उस कई रात्रियों के अन्न को 'अन्नग्लान' कहते हैं। उसी का कभी-कभी भगवान् सेवन करते थे। वृत्तिकार ने 'अन्नगिलाय' पाठ मानकर अर्थ किया है - पर्युषितम् - वासी अन्न। 'पेहमाणे समाहिं' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं - समाधिमिति तवसमाधी, णेव्वाणसमाधी, तं पेहमाणे।' समाधि का अर्थ है - तपः समाधि या निर्वाण समाधि, उसका पर्यालोचन करते हुए।