________________
नवम अध्ययन
अचिकित्सा - अपरिकर्म
१.
उत्थो उद्देसओ
चतुर्थ उद्देशक
[ भगवान् महावीर का उग्र तपश्चरण ]
३०७. भगवान् रोगों से आक्रान्त न होने पर भी अवमौदर्य (अल्पाहार) तप करते थे । वे रोग से स्पृष्ट हों या अस्पृष्ट, चिकित्सा में रुचि नहीं रखते थे ॥ ९४ ॥
२.
१
३०७. ओमोदरियं ' चाएति अपुट्ठे वि भगवं रोगेहिं । पुट्टे वसे अपुट्ठे वा णो से सातिज्जतो तेइच्छं ॥९४॥ ३०८. संसोहणं च वमणं च गायब्भंगणं सिणाणं च ।
२
३०८. वे शरीर को आत्मा से अन्य जानकर विरेचन, वमन, तैलमर्दन, स्नान और मर्दन (पगचंपी) आदि परिकर्म नहीं करते थे, तथा दन्तप्रक्षालन भी नहीं करते थे ॥ ९५ ॥
३०९. महामाहन भगवान् शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों से विरत होकर विचरण करते थे। वे बहुत बुरा नहीं बोलते थे। कभी-कभी भगवान् शिशिर ऋतु में छाया में स्थिर होकर ध्यान करते थे ॥ ९६ ॥
३.
४.
संबाहणं न से कप्पे दंतपक्खालणं परिण्णाए ॥ ९५ ॥ ३०९. विरते य गामधम्मेहिं रीयति माहणे अबहुवादी ।
सिसिरंमि एगदा भगवं छायाए झाति आसी य ॥९६॥
विवेचन - ऊनोदरी तप का सहज अभ्यास - भोजन सामने आने पर मन को रोकना बहुत कठिन कार्य है । साधारणतया मनुष्य तभी अल्पाहार करता है, जब वह रोग से घिर जाता है, अन्यथा स्वादिष्ट मनोज्ञ भोजन स्वाद वश वह अधिक ही खाता है । परन्तु भगवान् को वातादिजनित कोई रोग नहीं था, उनका स्वास्थ्य हर दृष्टि से उत्तम व नीरोग था। स्वादिष्ट भोजन भी उन्हें प्राप्त हो सकता था, किन्तु साधना की दृष्टि से किसी प्रकार का स्वाद लिए बिना वे अल्पाहार करते थे । ५
५.
३०१
चूर्णिकार ने 'ओमोयरियं चाएति' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है- "चाएति अहियासेति । " - अवमौदर्य को सहते थे या अवमौदर्य का अभ्यास था ।
-
-
इस पंक्ति का अर्थ चूर्णिकार ने किया है- "वातातिएहिं रोगेहिं अपुट्ठो वि ओमोदरियं कृतवां ।" अर्थात् - वातादिजन्य रोगों से अस्पृष्ट होते हुए भी भगवान् ऊनोदरी तप करते थे ।
'परिण्णा' का अर्थ चूर्णिकार के शब्दों में- "परिण्णाते जाणित्तु ण करेति । "
चूर्णिकार ने इसके बदले 'छावीए झाति आसीता, ' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है - छायाए ण आतवं गच्छति तत्थेव झाति यासित्ति अतिक्कंतकाले ।" - भगवान् छाया से धूप में नहीं जाते थे, वहीं ध्यान करते थे, काल व्यतीत हो जाने पर फिर वे जाते थे ।
आचा० शीला० टीका पत्र ३१२