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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध ___ वहाँ सिंह आदि वन्य हिंस्र पशुओं या सर्पादि विषैले जन्तुओं का उपद्रव था या नहीं, इसका कोई उल्लेख शास्त्र में नहीं मिलता, लेकिन वहाँ कुत्तों का बहुत अधिक उपद्रव था। वहाँ के कुत्ते बड़े खूखार थे। वहाँ के निवासी या उस प्रदेश में विचरण करने वाले अन्य तीर्थिक भिक्षु कुत्तों से बचाव के लिए लाठी और डण्डा रखते थे, लेकिन भगवान् तो परम अहिंसक थे, उनके पास लाठी थी, न डण्डा। इसलिए कुत्ते निःशंक होकर उन पर हमला कर देते थे। कई अनार्य लोग छू-छू करके कुत्तों को बुलाते और भगवान् को काटने के लिए उकसाते थे। .
निष्कर्ष यह है कि कठोर क्षेत्र, कठोर जनसमूह, कठोर और रूखा खान-पान, कठोर और रूक्ष व्यवहार एवं कठोर एवं ऊबड़-खाबड़ स्थान आदि के कारण लाढ़ देश साधुओं के विचरण के लिए दुष्कर और दुर्गम था। परन्तु परीषहों और उपसर्गों से लोहा लेने वाले महायोद्धा भगवान् महावीर ने तो उसी देश में अपनी साधना की अलख जगाई; इन सब दुष्परिस्थितियों में भी वे समता की अग्नि-परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।
वास्तव में, कर्मक्षय के जिस उद्देश्य से भगवान् उस देश में गए थे, उसमें उन्हें पूरी सफलता मिली। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं - "नागो संगामसीसे वा पारए तत्थ से महावीरे।" जैसे संग्राम के मोर्चे पर खड़ा हाथी भालों आदि से बींधे जाने पर भी पीछे नहीं हटता, वह युद्ध में विजयी बनकर पार पा लेता है, वैसे ही भगवान् महावीर परीषह-उपसर्गों की सेना का सामना करने में अड़े रहे और पार पाकर ही पारगामी हुए।
'मंसाणि छिण्णपुव्वाइं....' - इस पंक्ति का अर्थ वृत्तिकार करते हैं - एक बार पहले भगवान् के शरीर को पकड़कर उनका मांस काट लिया था। परन्तु चूर्णिकार इसकी व्याख्या यों करते हैं - 'दूसरे लोगों ने पहले भगवान् के शरीर का मांस (या उनकी मूंछे) काट लिया, किन्तु कई सज्जन (भगवान् के प्रशंसक) इसके लिए उन दुष्टों को रोकते-धिक्कारते थे।३।
॥ तृतीय उद्देशक समाप्त ॥
१.
(क) आचा० शीला० टीका पत्रांक ३१०-३११ (ख) आयारो (मुनि नथमल जी) पृ० ३४७ के आधार पर आचा० शीला० टीका पत्रांक ३११ (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक ३११ (ख) आचारांग चूर्णि-मूलपाठ टिप्पण सू० ३०३ का देखें
२. ३.