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नवम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र २९३-३०६
२९९ ३०६. (स्थान और आसन के सम्बन्ध में) किसी प्रकार की प्रतिज्ञा से मुक्त मतिमान, महामाहन भगवान् महावीर ने इस (पूर्वोक्त) विधि का अनेक बार आचरण किया; उनके द्वारा आचरित एवं उपदिष्ट विधि का अन्य साधक भी इसी प्रकार आचरण करते हैं ॥९३ ॥
- ऐसा मैं कहता हूँ।
विवेचन - लाढ़देश में विहार क्यों ? - भगवान् ने दीक्षा लेते ही अपने शरीर का व्युत्सर्ग कर दिया था। इसलिए वे व्युत्सर्जन की कसौटी पर अपने शरीर को कसने के लिए लाढ़ देश जैसे दुर्गम और दुश्चर क्षेत्र में गए। आवश्यकचूर्णि में बताया गया है कि भगवान् यह चिन्तन करते हैं कि 'अभी मुझे बहुत से कर्मों की निर्जरा करनी है, इसलिए लाढ़ देश में जाऊँ। वहाँ अनार्य लोग हैं, वहाँ कर्मनिर्जरा के निमित्त अधिक उपलब्ध होंगे।' मन में इस प्रकार का विचार करके भगवान् लाढ़ देश के लिए चल पड़े और एक दिन लाढ़ देश में प्रविष्ट हो गए। इसीलिए यहाँ कहा गया - 'अह दुच्चरलाढमचारी...' २
लाढ़ देश कहाँ और दुर्गम-दुश्चर क्यों ? - ऐतिहासिक खोजों के आधार पर पता चला है कि वर्तमान में वीरभूम, सिंहभूम एवं मानभूम (धनबाद आदि) जिले तथा पश्चिम बंगाल के तमलूक, मिदनापुर, हुगली तथा बर्दवान जिले का हिस्सा लाढ़ देश माना जाता था।
' लाढ़ देश पर्वतों, झाड़ियों और घने जंगलों के कारण बहुत दुर्गम था, उस प्रदेश में घास बहुत होती थी। चारों ओर पर्वतों से घिरा होने के कारण वहाँ सर्दी और गर्मी दोनों ही अधिक पड़ती थी। इसके अतिरिक्त वर्षा ऋतु में पानी अधिक होने से वहाँ दल-दल हो जाता जिससे डाँस, मच्छर, जलौका आदि अनेक जीव-जन्तु पैदा हो जाते थे। इनका बहुत ही उपद्रव होता था। लाढ़ देश के वज्रभूमि और सुम्हभूमि नामक जनपदों में नगर बहुत कम थे। गाँव में बस्ती भी बहुत कम होती थी।
वहाँ लोग अनार्य (क्रूर) और असभ्य होते थे। साधुओं - जिसमें भी नग्न साधुओं से परिचित न होने के कारण वे साधु को देखते ही उस पर टूट पड़ते थे। कई कुतूहलवश और कुछ लोग जिज्ञासावश एक साथ कई प्रश्न करते थे, परन्तु भगवान् की ओर से कोई उत्तर नहीं मिलता, तो वे उत्तेजित होकर या शंकाशील होकर उन्हें पीटने लगते । भगवान् को नग्न देखकर कई बार तो वे गाँव में प्रवेश नहीं करने देते थे। अधिकतर सूने घरों, खण्डहरों,खुले छप्परों या पेड़, वन अथवा श्मशान में ही भगवान् को निवास मिलता था, जगह भी ऊबड़-खाबड़, खड्डों और धूल से भरी हुई मिलती; कहीं काष्ठासन, फलक और पट्टे मिलते, पर वे भी धूल, मिट्टी एवं गोबर से सने हुए होते।
लाढ़ देश में तिल नहीं होते थे, गाएँ भी बहुत कम थी; इसलिए वहाँ घी-तेल सुलभ नहीं था, वहाँ के लोग रूखा-सूखा खाते थे, इसलिए वे स्वभाव से भी रूखे थे, बात-बात में उत्तेजित होना, गाली देना या झगड़ा करना,
उनका स्वभाव था। भगवान् को भी प्रायः उनसे रूखा-सूखा आहार मिलता था। ३ । १. 'तओ णं समणे भगवं महावीरे...एतारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हति बारसवासाइं वोसट्टकाए चत्तदेहे जे केइ उवसग्गा
समुप्पजंति, तंजहा...अहियासइस्सामि।' - आचा० सूत्र ७६९ २. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक ३१०
(ख) आवश्यक चूर्णि पूर्व भाग पृ० २९० ३. आवश्यक चूर्णि पृ० ३१८