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आचारांग सूत्र/प्रथम श्रुतस्कन्ध
२९४. दुर्गम लाढ़ देश के वज्र (वीर) भूमि और सुम्ह ( शुभ्र या सिंह) भूमि नामक प्रदेश में भगवान् ने विचरण किया था। वहाँ उन्होंने बहुत ही तुच्छ (ऊबड़-खाबड़ ) वासस्थानों और कठिन आसनों का सेवन किया था ॥ ८१ ॥
२९५. लाढ़ देश के क्षेत्र में भगवान् ने अनेक उपसर्ग सहे । वहाँ के बहुत से अनार्य लोग भगवान् पर डण्डों आदि से प्रहार करते थे; (उस देश के लोग ही रूखे थे, अतः ) भोजन भी प्राय: रूखा सूखा ही मिलता था । वहाँ के शिकारी कुत्ते उन पर टूट पड़ते और काट खाते थे ॥ ८२ ॥
२९६. कुत्ते काटने लगते या भौंकते तो बहुत थोड़े-से लोग उन काटते हुए कुत्तों को रोकते, (अधिकांश लोग तो इस श्रमण को कुत्ते काटें, इस नीयत से कुत्तों को बुलाते और छुछकार कर उनके पीछे लगा देते थे ॥ ८३ ॥ २९७. वहाँ ऐसे स्वभाव वाले बहुत से लोग थे, उस जनपद में भगवान् ने (छः मास तक ) पुनः-पुन: विचरण किया। उस वज्र (वीर) भूमि के बहुत से लोग रूक्षभोजी होने के कारण कठोर स्वभाव वाले थे। उस जनपद में दूसरे श्रमण अपने (शरीर - प्रमाण) लाठी और (शरीर से चार अंगुल लम्बी ) नालिका लेकर विहार करते थें ॥ ८४ ॥
२९८. इस प्रकार से वहाँ विचरण करने वाले श्रमणों को भी पहले कुत्ते ( टांग आदि से) पकड़ लेते, और इधर-उधर काट खाते या नोंच डालते। सचमुच उस लाढ़ देश में विचरण करना बहुत ही दुष्कर था ॥ ८५ ॥
२९९. अनगार भगवान् महावीर प्राणियों के प्रति मन-वचन-काया से होने वाले दण्ड का परित्याग और अपने शरीर के प्रति ममत्व का व्युत्सर्ग करके ( विचरण करते थे) अतः भगवान् उन ग्राम्यजनों के कांटों के समान तीखे वचनों को (निर्जरा का हेतु समझकर सहन) करते थे ॥ ८६ ॥
३००. हाथी जैसे युद्ध के मोर्चे पर (शस्त्र से विद्ध होने पर भी पीछे नहीं हटता, वैरी को जीतकर ) युद्ध का पार पा जाता है, वैसे ही भगवान् महावीर उस लाढ़ देश में परीषह - सेना को जीतकर पारगामी हुए। कभी-कभी लाढ़ देश में उन्हें (गाँव में स्थान नहीं मिलने पर ) अरण्य में रहना पड़ा ॥ ८७॥
३०१. भगवान् नियत वासस्थान या आहार की प्रतिज्ञा नहीं करते थे । किन्तु आवश्यकतावश निवास या आहार के लिए वे ग्राम की ओर जाते थे। वे ग्राम के निकट पहुँचते, न पहुँचते, तब तक तो कुछ लोग उस गाँव से निकलकर भगवान् को रोक लेते, उन पर प्रहार करते और कहते - "यहाँ से आगे कहीं दूर चले जाओ" ॥ ८८ ॥
३०२. उस लाढ़ देश में (गाँव से बाहर ठहरे हुए भगवान् को) बहुत से लोग डण्डे से या मुक्के से अथवा भाले आदि शस्त्र से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर (ठीकरे) से मारते, फिर 'मारो-मारो' कहकर होहल्ला मचाते ॥ ८९ ॥ ३०३. उन अनार्यों ने पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान् के शरीर को पकड़कर मांस काट लिया था। उन्हें (प्रतिकूल ) परीषहों से पीड़ित करते थे, कभी-कभी उन पर धूल फेंकते थे ॥ ९० ॥
३०४. कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान् को ऊँचा उठाकर नीचे गिरा देते थे, कुछ लोग आसन से (धक्का मारकर) दूर धकेल देते थे, किन्तु भगवान् शरीर का व्युत्सर्ग किए हुए परीषह सहन के लिए प्रणबद्ध, कष्टसहिष्णुदुःखप्रतीकार की प्रतिज्ञा से मुक्त थे । अतएव वे इन परीषहों - उपसर्गों से विचलित नहीं होते थे ॥ ९१ ॥
३०५. जैसे कवच पहना हुआ योद्धा युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से विद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान् महावीर लाढ़ादि देश में परीषह-सेना से पीड़ित होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए - मेरुपर्वत की तरह ध्यान में निश्चल रहकर मोक्षपथ में पराक्रम करते थे ॥ ९२ ॥
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