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________________ नवम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र २९३-३०६ २९७ २९९. णिहाय डंडं पाणेहिं तं वोसज कायमणगारे । अह गामकंटए भगवं ते अहियासए अभिसमेच्चा ॥८६॥ ३००. णाओ संगामसीसे वा पारए तत्थ से महवीरे । एवं पि तत्थ लाढेहिं अलद्धपुव्वो वि एगदा गामो ॥८७॥ ३०१. उवसंकमंतमपडिण्णं गामंतियं पि अपत्तं । पडिणिक्खमित्तु लूसिंसु एत्तातो परं पलेहिं त्ति ॥८८॥ ३०२. हतपुव्वो तत्थ डंडेणं अदुवा मुट्ठिणा अदु फलेणं । अदु लेलुणा कवालेणं हंता हंता कंदिसु ॥ ८९॥ ३०३. मंसाणि' छिण्णपुव्वाइं उट्ठभियाए एगदा कायं ।। परिस्सहाई लुंचिंसु अदुवा पंसणा अवकरिसु ॥ ९०॥ ३०४. उच्चालइय ‘णिहणिंसुअदुवा आसणाओ खलइंसु। ... वोसट्टकाए पणतासी दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे ॥११॥ ३०५. सूरो संगामसीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे । ___पडिसेवमाणो फरुसाइं अचले भगवं रीयित्था ॥ ९२॥ ३०६. एस विही अणुक्कंतो माहणेण मतीमता । बहुसो अपडिण्णेणं भगवया एवं रीयंति ॥९३॥त्ति बेमि । ___तइओ उद्देसओ सम्मत्तो ॥ २९३. (लाढ देश में विहार करते समय) भगवान् घास-कंटकादि का कठोर स्पर्श, शीत स्पर्श, भयंकर गर्मी का स्पर्श, डांस और मच्छरों का दंश; इन नाना प्रकार के दुःखद स्पर्शों (परीषहों) को सदा सम्यक् प्रकार से सहन करते थे ॥८॥ १. यहाँ चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है - 'तत्थ विहरतो ण लद्धपुव्यो' - अर्थात् - वहाँ (लाढ़ देश में) विहार करते हुए भगवान् को पहले-पहल कभी-कभी ग्राम नहीं मिलता था (निवास के लिए ग्राम में स्थान नहीं मिलता था)। यहाँ चूर्णिकार ने पाठान्तर माना है - गामणियंति अपत्तं।" अर्थ यों किया है - गामणियंतियं गामब्भासं, ते लाढा पडिनिक्खमेतु लुसेंति।" ग्राम के अन्तिक यानी निकट वे लाढ़निवासी अनार्यजन ग्राम से बाहर निकलते हुए भगवान् पर प्रहार कर देते थे। अदुवा मुट्ठिणा आदि पदों का अर्थ चूर्णिकार ने यों किया है-दंडो, मुट्ठी कंठं, फलं.चवेडा । अर्थात् - दण्ड और मुष्टि का अर्थ तो प्रसिद्ध है। फल से - यानी चपेटा - थप्पड़ से। इसके बदले पाठान्तर है - मंसूणि पुव्वछिण्णाई। चूर्णिकार ने इसका अर्थ किया है - 'अन्नेहि पुण मंसूणि छिन्नपुव्वाणि, केयि थूमा तेणं उर्दुभति धिक्कारेंति या' दूसरे लोगों ने पहले भगवान् के शरीर का मांस (या उनकी मूंछे) काट लिया था। कई प्रशंसक उन दुष्टों को इसके लिए रोकते थे, धिक्कारते थे। 'उच्चालइय' के बदले चूर्णिकार ने 'उच्चालइता' पाठ माना है - उसका अर्थ होता है - ऊपर उछाल कर....। चूर्णिकार ने इसके बदले 'पतिसेवमाणोरीयन्त' पाठान्तर मानकर अर्थ किया है - 'सहमाणे""रीयन्त'- अर्थात् सहन करते हुए भगवान् विचरण करते थे। ६.
SR No.003436
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages430
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size9 MB
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